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Sunday, September 24, 2023
धर्म कर्म

लोभी और अधार्मिक धनवान में तथा दरिद्र व्यक्ति में कोई अन्तर नहीं है

Visfot News

आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
श्रीमद् देवीभागवत के 7 वें स्कन्ध के 19 वें अध्याय के 24 वें श्लोक में सत्यवादी महाराज हरिश्चन्द्र ने ऋषि विश्वामित्र जी से कहा कि –
व्यर्थं हि जीवितं तस्य विभवं प्राप्य येन वै।
नोपार्जितं यश: शुद्धं परलोकसुखप्रदम्।।
जिस व्यक्ति ने बहुत परिश्रम करके धनवैभव एकत्रित कर लिया है, उसको धनवान और धनी कहा जाता है। किन्तु धन वैभव प्राप्त करके भी यदि उस धनवान व्यक्ति ने परलोक में तथा इस लोक में सुख देनेवाला शुद्ध यश प्राप्त नहीं कर पाया है तो ऐसे धनवान का धन भी व्यर्थ है और ऐसे धनवान का मनुष्य जन्म ही व्यर्थ है। उसका जीवित रहना भी व्यर्थ ही है।क्योंकि न तो वह स्वयं ही किसी के काम आता है और न ही उसका धन किसी के काम आता है।
जो वस्तु या व्यक्ति किसी के काम नहीं आते हैं, उसी को व्यर्थ शब्द से कहा जाता है। अर्थात जिसे आजकल कचरा शब्द से कहा जाता है। इसलिए कचरे को सभी लोग प्रतिदिन झाडक़र फेंक देते हैं।
अब थोड़ी सा विचार कर लीजिए!
व्यर्थं हि जीवितं तस्य विभवं प्राप्य येन वै।
वैभव होते हुए भी लोभी धनवान का मनुष्य जन्म व्यर्थ है।
प्रत्येक स्त्री पुरुषों के शरीर में चार गुण जन्म से लेकर मृत्यु तक रहते हैं।
(1) काम,
(2) क्रोध
(3)लोभ
(4) मोह
इन चारों में से लोभ, मोह और क्रोध ये तीनों ही जन्म से मृत्यु तक बने रहते हैं।
काम तो एक आयु से प्रारम्भ होता है और वृद्धावस्था में समाप्त हो जाता है। वीर्य का निर्माण 16 वर्ष की आयु से लेकर 50 वर्ष की आयु तक होता है। 40 वर्ष की आयु के बाद तो भोगकामना भले बनी रहे किन्तु वीर्य निर्माण होना कम हो जाता है, इसलिए धीरे धीरे काम की समाप्ति भी हो जाती है। वासना कामना तो मरते दमतक बनी रहे, उसको काम नहीं कहते हैं। अब देखिए कि जैसे ही किसी स्त्री पुरुष को अपने शरीर का ज्ञान होता है, वैसे ही उसके हृदय में शारीरिक सुख की प्रबल कामना जागृत होती है। इसी को मोह कहते हैं। मोह का प्रारम्भ अपने शरीर से ही होता है और मरते दम तक अपने शरीर से मोह बना रहता है। मानसिक और शारीरिक सुख के सभी साधनों से प्रेम होता है। वह प्रेम ही मोह है। जिस व्यक्ति या वस्तु या स्थान से दुख मिलता है, उसके प्रति मोह भंग होकर कहीं दूसरे से हो जाता है। यही सृष्टि का सिद्धांत है। यही सृष्टि का विज्ञान है। इसी गुण के कारण सृष्टि उत्पन्न भी होती है और चलती भी रहती है।
लोभ
धन के व्यवहार से संसार के लोग एक दूसरे से सम्बन्ध रखते हैं। धन सम्बन्ध ही व्यापार की वृद्धि का कारण है। शारीरिक परिश्रम से तथा बौद्धिक परिश्रम से ही धन आता है। मनुष्य जाति में सभी वस्तुएं धन से प्राप्त होतीं हैं। इस मनुष्य जाति में कुछ ऐसे बुद्धिप्रधान, स्त्री पुरुष होते हैं कि वे धन एकत्रित करने की क्षमता रखते हैं। सभी स्त्रियां या सभी पुरुष बुद्धिप्रधान नहीं होते हैं। इसलिए व्यापारी कम होते हैं और कार्यकर्ता अधिक होते हैं। कुछ बुद्धिमान पुरुष तथा कुछ बुद्धिमती नारियां, युवावस्था के प्रारम्भ से ही लेकर रातदिन इतना परिश्रम करते हैं कि उनको पता ही नहीं चलता है कि वे पचास वर्ष के कब हो गए। अपार धनराशि एकत्रित कर लेते हैं। अनेक फैक्टरी,अनेक दुकान आदि कर लेते हैं। संसार में ऐसीं नारियां बहुत कम होतीं हैं, तथा ऐसे पुरुष भी बहुत कम होते हैं, जिनका धन दरिद्र समाज , निर्बल समाज के काम आता है। जिनके पास धन तो इतना है कि दस पीढ़ी तक बैठकर खा सकते हैं, किन्तु उनके धन से किसी गरीब का पेट भी नहीं भरता हो तो ऐसे धनवान का धन उसके मरने के बाद भी किसके काम आएगा? अर्थात किसी के काम नहीं आएगा। धन एकत्रित करनेवाले ऐसे धनवानों की मृत्यु पर भी कोई दुखी नहीं होता है और न ही उनका कोई यश होता है। अब आप समझ चुके होंगे कि राजा हरिश्चन्द्र क्या कहना चाहते हैं।
नोपार्जितं यश: शुद्धं परलोकसुखप्रदम्
जिस धनवान ने अपने जीते जी धन से शुद्ध यश को प्राप्त नहीं किया है, उस धनवान का तो पूरा जीवन ही धन वैभव एकत्रित करने में ही चला गया। इसलिए उसका जीवन ही व्यर्थ हो गया। उसका कोई नाम तक लेनेवाला नहीं रहा। कोई स्त्री या पुरुष भूखा प्यासा मार्ग में मिल जाए। सामने से एक लोभी धनवान व्यक्ति और एक दरिद्र व्यक्ति आ रहे हों, और वह उन दोनों से रोटी पानी मांगे। एक दरिद्र व्यक्ति, दरिद्रता के कारण उसको भोजन नहीं दे पाया, और एक धनवान व्यक्ति लोभ के कारण उसको भोजन नहीं दे पाया, तो परिणाम तो वही हुआ कि वह भूखा व्यक्ति भूखा ही रह गया। इसलिए कह रहे हैं कि ऐसे धनवान पुरुष का जीवन और ऐसी धनवती स्त्री का जीवन व्यर्थ है, जिसके धन होते हुए भी उसने उस जड़ धन से यश भी नहीं कमाया, पुण्य भी नहीं कमाया।। इसलिए ऐसे धनवानों से तो वे स्त्री पुरुष श्रेष्ठ हैं, धन्य हैं, जिनके अपार धन नहीं होते हुए भी उनके दरवाजे से कोई भूखा प्यासा जीव दुखी होकर निराश होकर नहीं लौटता है। ऐसे उदार स्त्री पुरुषों का ही जीवन सार्थक और सफल है।

RAM KUMAR KUSHWAHA
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