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Sunday, September 24, 2023
धर्म कर्म

रोगी और भोगी, ये दोनों योग नहीं कर सकते हैं

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आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
भगवान आद्य शंकराचार्य जी ने विवेकचूड़ामणि के 368 वें श्लोक में योग की प्रथम साधना बताते हुए कहा कि –
योगस्य प्रथमं द्वारं वाङ्निरोधोह्यपरिग्रह:।
निराशा च निरीहा च नित्यमेकान्तशीलता।।
योगसाधना के सबसे पहले ये तितिक्षा अर्थात सहनशक्ति की वृद्धि करानेवाली शारीरिक मानसिक ये 5 क्रियाएं आवश्यक हैं।
(1) वाङ्निरोध: (वाणी का संयम)
योग के मार्ग को स्वीकार करनेवाले साधक को सर्वप्रथम वाणी का निरोध परमावश्यक है। किसी से भी कभी भी, कुछ भी, कहीं भी नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि बोलने से ही किसी के विचार मन में आते हैं। आप जब किसी से कुछ वार्ता करेंगे तो वह भी अपनी बुद्धि के अनुसार कुछ न कुछ अवश्य बोलेगा , उसका बोलना और फिर आपका बोलना, बस, ये वार्ता ही मन को विचलित कर देती है। इसलिए अनावश्यक रूप से किसी से कोई भी किसी भी प्रकार की वार्ता न करने का अभ्यास ही योग की प्रथम सीढ़ी है। बहुत बोलनेवाला कभी योगमार्ग का पथिक नहीं हो सकता है।
(2) अपरिग्रह:
अपने शरीर संचालन मात्र के लिए जो भी प्राप्त हो जाता है, उतने से ही संतुष्ट होना चाहिए। परिग्रह अर्थात संग्रह। अपरिग्रह अर्थात असंग्रह। मकान और वस्तुओं का तथा संसार के व्यवहार का संग्रह नहीं करना चाहिए। यदि संसार के व्यवहार को ही अधिक महत्त्व देने लगेंगे तो व्यक्तियों की सेवा करने लगेगें, चिंता करने लगेंगे। मन को चिन्तारहित रहित रखने के लिए किसी भी वस्तु, व्यक्ति और स्थान का संग्रह नहीं करना, ये योग का दूसरा साधन है।
(3) निराशा
जब किसी वस्तु व्यक्ति या स्थान का संग्रह नहीं करेंगे तो शरदी, गर्मी, वर्षात आदि ऋतुओं के परिवर्तन भी सहन करने पड़ेंगे। शारीरिक दुख को दूर करने की इच्छा से किसी भी व्यक्ति से किसी भी वस्तु की आशा न करना, ये योग का तीसरा साधन है।
(4) निरीहा
ईहा अर्थात इच्छा । निरीहा अर्थात इच्छा रहित होना। सम्मान की इच्छा, सुरक्षा की इच्छा, यश की इच्छा, धन की इच्छा, लोगों को योगी होने के प्रदर्शन की इच्छा आदि किसी भी प्रकार की लौकिक इच्छा हृदय में नहीं होना चाहिए। यदि मन में किसी भी प्रकार की इच्छा जागृत होती है तो भी मन प्राप्त होने पर प्रसन्न होगा और प्राप्त न होने पर दुखी होगा। ऐसा विचलित मन योग के योग्य नहीं होता है।
(5) नित्यमेकान्तशीलता
सदा ही एकान्त में अकेले ही रहना। क्योंकि जिस समय संसार के लोगों से सम्पर्क होने लगता है तो उनके दुखों को सुनकर योगसाधक के मन में दुखियों के प्रति दया करुणा आदि सद्गुण जागृत होने लगते हैं। दया करने लगते हैं तो जनसेवा होने लगती है। जनसेवा के कारण यश मान प्रतिष्ठा धन आदि सबकुछ मिलता है तो फिर नियम संयम आदि साधनाओं में शिथिलता आने लगती है। अर्थात योगसाधना के साधक को संसार के सभी प्रकार के व्यवहार से, व्यक्तियों से तथा सामाजिक क्रियाओं से, तथा सांसारिक पदार्थों के भोग्य भोज्य पदार्थों से दूर ही रहना होगा, तभी योग के नियमों का निरन्तर पालन हो सकेगा। यदि नियमों का निरन्तर पालन कर सकेंगे तो ही योगबल से प्राप्त होनेवाला मोक्ष तथा मोक्षपरक आत्मज्ञान प्राप्त हो सकेगा।

RAM KUMAR KUSHWAHA

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