आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
महाभारत के अनुशासनपर्व के 108 वें अध्याय के तीसरे श्लोक में और चौथे श्लोक में वैशम्पायन जी ने महाराज जनमेजय को निर्दोष, निर्मल मन का महत्त्व बताते हुए कहा कि –
अगाधे विमले शुद्धे सत्यतोये धृतिहृदे।
स्नातव्यं मानसे तीर्थे सत्वमालम्ब्य शाश्वतम्।। 3।।
मन में धैर्य का कुण्ड है। उस धैर्य कुण्ड में निर्मल तथा शुद्ध सत्य का अगाध जल है। ऐसे मन के सरोवर के तीर्थ में भगवान नारायण का आश्रय लेकर सदा ही स्नान करना चाहिए।
इस श्लोक पर थोड़ा विचार कर लीजिए –
धृतिहृदे
हृद अर्थात सरोवर। ऐसा सरोवर ,जिसमें सदा ही जल भरा रहता है। कभी सूखता ही नहीं है।
धृति का अर्थ होता है धैर्य। जब कोई जीव इस संसार में जन्म लेता है तो उसे शरीर के कारण भूख, प्यास, से लेकर पारिवारिक सामाजिक सभी प्रकार के सुख दुख आते ही हैं। शरीर का पालन पोषण करनेवाले माता पिता, तथा भाई बहिन, बन्धु, सम्बन्धियों का संयोग वियोग होता रहता है। किसी किसी का तो जीवनपर्यंत के लिए वियोग हो जाता है। किसी की मृत्यु होने पर फिर वह दुबारा कभी नहीं मिलता है। इनसे व्यवहार करने पर अनेक प्रकार के दुख भी प्राप्त होते हैं। शारीरिक दुख , मानसिकदुख, भौतिकदुख , तथा दैविकदुख जीवनपर्यंत बने ही रहते हैं। दुखों से व्याकुल न होकर संतसमागम करते हुए तथा हरिकथा सुनते हुए और कर्तव्य करते हुए धैर्य धारण करना चाहिए।
धैर्य कुण्ड का जल देखिए –
अगाधे विमले शुद्धे सत्यतोये
इस धैर्य कुण्ड में सत्य का अगाध जल भरा हो। वह सत्य का जल , विल्कुल शुद्ध हो, विमल अर्थात निर्मल हो। इस धैर्यकुण्ड में कुविचार, कुसंग के वृक्षों के पत्ते न गिर रहे हों, अन्यथा काम, क्रोध, लोभ और कामना मोह के पत्ते इस शुद्ध अगाध जल को गंदा कर देते हैं। इस मानसरोवर के जल को शुद्ध रखने के लिए विद्वान महापुरुष सद्गुरु के द्वारा संयम नियम की बाड़ी लगी होना चाहिए। पुराणों का श्रवण तथा वेदोक्त धर्म का पालन करते हुए संसार को माया का अखण्ड बाजार समझना चाहिए। जो छूट जाए तो छूट जाए, जो नष्ट हो जाए तो नष्ट हो जाए, किन्तु अपना धर्म, सत्संग और कर्तव्य न छूटे। बस, यही धैर्य कुण्ड है। मन में धैर्य रखना चाहिए। संसार में जो होता आया है, वही सदा होता रहेगा, ये ध्यान ही धैर्य का साधन है। सत्यनिष्ठा तथा भगवान में श्रद्धा विश्वास ही मन को तीर्थ बना देते हैं। ऐसे शुद्ध निर्मल मन में स्नान करनेवाले व्यक्ति को स्थूल तीर्थों के बाह्यजल में स्नान करने की आवश्यकता नहीं है।
अब दूसरा श्लोक देखिए
तीर्थशौचमनर्थित्वमार्जवं सत्यमार्दवम्।
अहिंसा सर्वभूतानामानृशंस्यं दम:शम:।। 4।।
मन के धृतिकुण्ड में स्नान करने के लिए 8 गुण भी व्यक्ति में होने चाहिए।
(1) तीर्थशौच
अर्थात तीर्थ की पवित्रता सुरक्षित रखने के लिए पवित्र भोजन, नित्य ही ब्रह्ममुहूर्त में जगना, समय से सोना तथा शुद्ध वस्त्र धारण करना, किसी की निंदा न करना, आदि तीर्थशौच अर्थात तीर्थपवित्रता कहा जाता है।
(2) अनर्थित्व
अर्थी अर्थात याचक। याचना नहीं करना चाहिए। जो व्यक्ति अपने सुख के लिए किसी से भी किसी वस्तु की याचना नहीं करते हैं, उस गुण को अनर्थित्व गुण कहते हैं। अपने जप तप आदि के बदले में भगवान से भी कुछ नहीं मांगना चाहिए ,तो मनुष्य से मांगने की तो बात ही कहां है? इसी को निष्कामभाव कहते हैं।
(3) आर्जव
आर्जव अर्थात ऋजुता । स्वभाव में सरलता होना चाहिए। धनवान, गरीब, बुद्धिमान, अल्पज्ञ आदि भेद को छोडक़र सबसे सरलता से व्यवहार करना चाहिए। दुराग्रही हठी नहीं होना चाहिए। किसी से भी किसी भी विषय में विवाद नहीं करना चाहिए।
(4) सत्यमार्दवम्
मार्दव अर्थात मृदुता कोमलता। सत्य में मृदुता होना चाहिए। कठोर सत्य तथा अहितकारी सत्य नहीं बोलना चाहिए। यदि आपके सत्य बोलने से किसी का मन दुखी हो जाता है तो वह आपसे दूर दूर रहने लगता है। फिर आप किसी को सत्य का ज्ञान नहीं करा सकते हैं। इसलिए हितकारी और कोमल मधुर कर्णप्रिय सत्य बोलना चाहिए।
(5) अहिंसा सर्वभूतानाम्
किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करना चाहिए।
(6) अनृशंस्यम्
नृशंस अर्थात निर्दयता मनुष्य जाति को मारना। अनृशंस्यता अर्थात सभी प्राणियों के प्रति दया करुणा होना चाहिए।
(7) दम:
जिह्वा आदि इन्द्रियों को विविध प्रकार के अनधिकृत सुख से दूर रखना ही दम है।
(8) शम:
अन्त:करण में स्वत: ही जागृत होनेवाले व्यर्थ के काम क्रोध लोभ मोह आदि को शास्त्रों की युक्तियों से तथा सद्गुरु के उपदेश के ध्यान से रोकने का नाम शम है। ऐसा मन जिसका हो जाता है, उसका मन ही तीर्थ स्थल है। इसलिए मन को ही पवित्र करने का तथा पवित्र रखने का सदैव ही प्रयास करते रहना चाहिए। निर्मल मन में ही भगवान निवास करते हैं।
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