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Sunday, September 24, 2023
धर्म कर्म

सदाचार के बिना संतोष और शान्ति दोनों नहीं होते

सदाचार के बिना संतोष और शान्ति दोनों नहीं होते

जिनके पास सबकुछ है, वास्तव में उन्हीं के पास कुछ नहीं हैजिनके पास सबकुछ है, वास्तव में उन्हीं के पास कुछ नहीं है
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आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम

श्रीमद् देवीभागवत के 11 वें स्कन्ध के अन्तिम 24 वें अध्याय के 98 वें श्लोक में भगवान श्री नारायण ने नारद जी को सुख, शान्ति तथा तथा सन्तोष का आधार बताते हुए कहा कि -आचारवान् सदा पूतः सदैवाचारवान् सुखी।
आचारवान् सदा धन्यः सत्यं सत्यं च नारद।।जो स्त्री सदाचारिणी है तथा जो पुरुष सदाचारी हैं, वे स्त्री पुरुष सदा ही पवित्र हृदय के होते हैं। वे सदा आभ्यन्तर रूप से सन्तुष्ट और सुखी रहते हैं। सदाचारिणी स्त्री और सदाचारी पुरुष ही इस संसार में धन्य हैं। यही सत्य है, यही सत्य है।भगवान नारायण ने कहा कि हे नारद! इस सारे संसार में तुम्हें जो दुख ही दुख दिखाई दे रहा है, उसका कारण तो एक ही है कि यहां सभी स्त्री पुरुषों में सदाचार नहीं है। इसलिए प्रायः सभी स्त्री पुरुष एक दूसरे को दुखी करके स्वयं भी दुखी रहते हैं।धर्म के अनुसार जो सदा ही आचरण किया जाता है, वही सदाचार है। सदा आचार ही सदाचार है।

आचारवान् सदा पूतः

सदाचारी सदा ही तन और मन दोनों से शुद्ध होता है।

प्रत्येक स्त्री पुरुष के दस इन्द्रियां हैं।
(1) नेत्र (2) कान (3) नासिका (4) रसना, जिह्वा (5) त्वचा (6) हाथ (7) पैर (8) पैर (9) लिंग (10) गुदा

इन दसों इन्द्रियों को धर्म के अनुसार चलाने का नाम ही सदाचार है। जिनकी ये दसों इन्द्रियां नियम संयम के अनुसार नियन्त्रित होंगीं, वही स्त्री पुरुष पवित्र होंगे।

नेत्रों से जो नहीं देखने को मना किया गया है, वो न देखे। कानों से जो नहीं सुनने को कहा गया है, वो न सुने। जिह्वा से जो नहीं भक्षण करने के लिए कहा गया है, वो न भक्षण करे। त्वचा से जो नहीं छूने के लिए कहा गया है, वो न छुए। नासिका से जो नहीं सूंघने के लिए कहा गया है, वो न सूंघे।

इन्द्रियों से जो ग्रहण किया जाता है, उसी पदार्थ का स्मरण मन करता है। यदि ये पांचों नियन्त्रित रहेंगे तो हाथ, पैर, लिंग और गुदा तथा वाणीं स्वतः ही नियन्त्रित हो जाएंगे।

इसलिए कहा गया है कि आचारवान ही सदा पवित्र होता है।
जो नहीं देखना है, वह देखेंगे, जो नहीं सुनना है, वह सुनेंगे, जो नहीं खाना है, वह खाएंगे, जो नहीं बोलना है, वह बोलेंगे तो निश्चित ही है कि आपका मन सदा ही विचलित रहेगा। शरीर भी सदा ही रोगी रहेगा। मन भी अशुद्ध और अपवित्र रहेगा तो आप सदा ही गलत ही करते रहेंगे। इसलिए सामाजिक भय भी बना रहेगा। मन और तन दोनों ही रोगी बने रहेंगे। जिनके तन मन दोनों ही रोगी होंगे, उनके हृदय में सुख, सन्तोष और शान्ति कभी नहीं रहेगी। अपार धन सम्पत्ति होते हुए भी चिन्ता, व्याकुलता, भय, उद्वेग अशान्ति हृदय में बने ही रहते हैं।

आचारवान् सदा धन्यः

जिस स्त्री पुरुष ने अपने धर्म के अनुसार ही कर्मों को किया है, वही जीते जी धन्य है । शरीर छूटने के बाद कोई उसका श्राद्ध करे या न करे, तो भी वह दूसरा जन्म मिलने पर सदा सुखी रहेगा। वही धन्य है।

यदि किसी स्त्री पुरुष ने अपने जीवन में स्वयं ही अपने कर्तव्य का पालन अच्छी प्रकार से नहीं किया है ,तो अज्ञानियों सन्तानों के द्वारा अश्रद्धा से, लोभ से, तथा अशुद्धि से किए गए श्राद्ध आदि से उसकी सद्गति नहीं होती है।

इसलिए सभी स्त्री पुरुषों को अपने अपने धर्म का दृढ़ता से पालन करना चाहिए।
स्वयं से किया गया धर्मपालन तथा सत्कर्म न कभी व्यर्थ होता है और न ही होगा। मात्र जीवन को जैसे तैसे व्यतीत करने का नाम मनुष्यता नहीं है। मनुष्यता तो सत्कर्मों से ही आती है।

सत्यं सत्यं च नारद

हे नारद जी! यही सत्य है, यह सदाचार ही सत्य है। जो सदाचारसम्पन्न नहीं है, वे स्त्री पुरुष असत्य भाषण तो करते ही हैं, साथ साथ मानवसमाज के विरुद्ध आचरण करके सारे संसार को दुख ही दुख देते हैं तथा स्वयं दुखी रहते हैं।

RAM KUMAR KUSHWAHA
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