आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन
जो भ्रम, जो अज्ञान, आपको है, यह तो सृष्टि में मनुष्य को तभी से है, जब से यह सृष्टि हुई है। यह भ्रम, तब तक बना रहेगा जब तक आप सबकुछ त्याग कर यथार्थ सत्य को जानने के लिए किसी भ्रमनाशक गुरू की शरण ग्रहण नहीं करेंगे। यह बहुत बड़ा रोग है। इस रोग के कारण मनुष्य अपने इष्टदेव का निर्णय नहीं कर पाता है, और भगवान का भजन कीर्तन किए बिना ही इस मनुष्य जीवन को खाने पीने भोगने के प्रयास में समाप्त कर के जाने किस योनि में चला जाता है।
तर्क करते करते जीवन चला जाएगा।किन्तु भजन कीर्तन भगवान का नहीं कर पाएंगे। डाक्टर के पास रोगी तब तक रहता है, जब तक रोगी को ऐसा नहीं लगने लगता है कि मैं स्वस्थ हूं। गुरू की सेवा औऱ उनकी आज्ञा पालन किए बिना यह भ्रम रोग नष्ट नहीं होने वाला है,फिर भी हम उत्तर तो बता ही रहे हैं।लेकिन यह प्रश्न कभी न कभी किसी न किसी से फिर करेंगे।
भागवत के 4 स्कन्ध के 7 अध्याय के 50 श्लोक से लेकर 54 वें श्लोक तक भगवान नारायण ने दक्ष प्रजापति से कहा कि
अहं ब्रह्मा च शर्वश्च जगत: कारणं परम्।
आत्मेश्वर उपद्रष्टा स्वयं द्रगविशेषण:।।50।।
मैं नारायण, ब्रह्मा, औऱ शर्व अर्थात शंकर जी हम तीनों ही इस संसार के सृष्टि के कर्ता, भर्ता औऱ हर्ता हैं।हम ही तीनों आत्मेश्वर हैं। हम ही उपद्रष्टा अर्थात जीवों के प्रत्येक कर्म के साक्षी हैं।हम ही सब जीवों के हृदय में विराजमान हैं।
स्वयं द्रक् अर्थात हम स्वयं ही शक्ति हैं।
तस्मिन् ब्रह्मण्यद्वितीये केवले परमात्मनि।
ब्रह्मरुद्रौ च भूतानि भेदेनाज्ञोह्यनुपश्यति।।52।।
यह अज्ञानी मनुष्य अद्वितीय केवल मात्र एक ब्रह्म परमात्मा मेंं ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश, कोऔऱ इन जीवों को अलग अलग देखता है। अज्ञानी मनुष्य को प्लास्टिक, कोमल, लोहा कठोर, तांबा, चांदी, मिट्टी, पेड़ सब अलग अलग दिखाई देते हैं।क्योंकि सबका काम भी अलग अलग है।स्वरूप भी अलग अलग है।किन्तु उसे यह नहीं समझ में आता है कि ये कोमल कठोर, रसीला, सूखा काला नीला पीला सब पृथिवी ही है। सबका एक ही स्वरूप है।ये सब जहां से उत्पन्न से होता है, उसी पृथिवी मेंं विलीन हो जाता है। यह सब देखते हुए भी अज्ञानी समझ नहीं पाता है।
अब अन्तिमबात
त्रयाणामेकभावानां यो न पश्यति वै भिदाम्।
सर्वभूतात्मनां ब्रह्मन् स शान्तिमधिगच्छति।।54।।
भगवान ने कहा कि जिसे गुरू की सेवा निष्ठा तथा उनकी कृपा से ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीनों के स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो जाता है, उसे भेद नहीं दिखाई देता है। औऱ जब भेद नहीं दिखाई देता है, तभी वह मनुष्य भगवान का हो जाता है।जब वह भगवान का हो जाता है, तभी उसको शान्ति मिलती है। यही सब शास्त्रों का रहस्य है।