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Sunday, September 24, 2023
धर्म कर्म

स्वामिनारायण भगवान का साधु, ऐसा होना चाहिए

ये जड़ प्रकृति,बिना भगवान के न स्वयं बनती है, और न ही कुछ बना सकती हैये जड़ प्रकृति,बिना भगवान के न स्वयं बनती है, और न ही कुछ बना सकती है
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आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
स्वामिनारायण संप्रदाय के प्रवर्तक सहजानन्द स्वामी ने अपने साधुओं को आन्तरिक वृत्तियों के नियन्त्रण के लिए सहनशक्ति की वृद्धि के लिए आज्ञा करते हुए ” शिक्षापत्री” के 201 वें श्लोक में कहा कि –
गालीदानं ताडनं च कृतं कुमतिभिर्जनै:।
क्षन्तव्यमेव सर्वेषां चिन्तनीयं हितं च तै:।।201।।
सहजानन्द स्वामी ने अपने साधुओं को आज्ञा देते हुए कहा कि – महात्माओं साधुओं का माहात्म्य न जाननेवाले, कोई कुमति अर्थात कुबुद्धि स्त्री पुरुष गाली देते हैं, तिरस्कार करते हैं, ताडऩा भी करते हैं तो भी मेरे साधुओं को चाहिए कि ऐसे मंदबुद्धि स्त्री, बालक तथा पुरुषों को क्षमा कर दें। उनके साथ विवाद न करें और न ही उनको सत्संग, साधु तथा भगवान की चर्चा करके उनको समझाने का प्रयास करें। ऐसे कुबुद्धियों के प्रति भी द्वेष भावना न रखें, और सदा ही दुष्टों के भी कल्याण का विचार करना चाहिए।
इस श्लोक पर थोड़ा विचार कीजिए –
गालीदानं ताडनं च कृतं कुमतिभिर्जनै: –
सत्संग के लिए भ्रमण करते हुए महात्माओं को समाज में अनेक प्रकार के स्त्री पुरुष मिलते हैं। सभी स्त्री पुरुष एक जैसे सज्जन स्वभाव के नहीं होते हैं। कुछ स्त्री पुरुष ऐसे कुबुद्धि होते हैं कि अच्छे महात्माओं को भी गाली देते हैं। ताडऩा भी देते हैं। दरवाजे में आए हुए कल्याण को, सुख को स्वयं ही भगा देते हैं। कहीं कहीं, कभी कभी तो ऐसे गृहस्थ स्त्री पुरुष मिल जाते हैं कि साधुओं को तथा ब्राह्मणों को साक्षात् भगवान का स्वरूप मानकर तन से, मन से, तथा धन से समर्पित होकर सेवा करते हैं। ऐसे गृहस्थों की सेवा देखकर साधुओं का हृदय इतना द्रवीभूत हो जाता है कि ऐसे साधुभक्त, ब्राह्मणभक्त तथा भगवद्भक्त गृहस्थ के लिए साधुजन भगवान से उनके कल्याण की प्रार्थना करते हैं। उनको दुखी देखकर सुखी होने का आशीर्वाद देते हैं। बार बार उसके दुख में दुखी भी होते हैं। ऐसे सद्गृहस्थों के यहां भगवान के भक्त बिना बुलाए भी बार बार जाते हैं। दुख दूर करने के अनेक उपाय बताते हैं। कभी कभी तो सद्गृहस्थों का दुख दूर करने के लिए महात्मा जन स्वयं भी अनेक प्रकार के अनुष्ठान करते हैं, औषधियां बताते हैं। साधुओं की सेवा करनेवाले गृहस्थ की चिन्ता महात्मा करने लगते हैं। जिस गृहस्थ के कल्याण की कामना स्वयं महात्मा करते हैं, उस गृहस्थ का कल्याण भी निश्चित हो जाता है। कोई दुष्ट स्त्री पुरुष मिल जाएं तो साधुओं को क्या करना चाहिए
क्षन्तव्यमेव सर्वेषाम्
एव का अर्थ होता है (ही)। ही का अर्थ होता है कि कोई विकल्प नहीं है। क्षमा ही करना चाहिए। गाली देनेवाले से ये भी नहीं कहना चाहिए कि क्यों गाली दे रहे हो, हमने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है इत्यादि बातें ही नहीं करना है। यदि ताडऩा भी दे रहे हों, धक्का मुक्की भी कर देते हैं, या एकाध थप्पड़ भी मार देते हैं तो भी साधुओं को उसका प्रत्युत्तर नहीं देना है। मौन ही हो जाना है। अत्यधिक अपमानित होने पर भी, साधुओं को ” क्षन्तव्यमेव ” उनको क्षमा ही करना चाहिए।
क्षमा ही क्यों करना चाहिए
क्षमा इसलिए करना चाहिए, क्योंकि उसके द्वारा किए गए अपमान से, गाली से महात्माओं का तो कुछ भी नहीं बिगड़ेगा, किन्तु यदि महात्माओं को उस पर क्रोध आ गया तो उन दुष्टों का तो वंश सहित समूल नाश ही हो जाएगा। अपमान का भाव जागृत होते ही महात्माओं के मन में राग द्वेष आदि दोषों का प्रभाव बढऩे लगता है। इसलिए ऐसे असभ्य व्यक्ति को क्षमा ही करना चाहिए।
साधु महात्मा दुष्टों की गाली, ताडऩा सहन कर लेंगे तो क्या उन दुष्टों को पाप दोष कुछ भी नहीं लगेगा
महात्माओं के साथ किए गए दुव्र्यवहार का दोष तो लगता ही है। उस दुव्र्यवहार का दुखरूप फल तो भोगना ही पड़ेगा। तो महात्माओं को क्या करना चाहिए
चिन्तनीयं हितं च तै:
महात्माओं को ऐसे दुष्ट स्त्री पुरुषों का भी हितचिन्तन ही करना चाहिए। जैसे श्रद्धालु सेवक के कल्याण के लिए भगवान से प्रार्थना करते हैं, इसी प्रकार इन अज्ञानी, अविवेकी, स्त्री पुरुषों के कल्याण की भी कामना करना चाहिए। तभी तो साधु की साधुता है। यदि दुष्ट के लिए दुष्टता और सज्जन के लिए सज्जनता की भावना होती है तो ऐसी भावना तो सामान्य मनुष्य की भावना के समान कही जाएगी। साधुओं के भगवान जैसे हैं, वैसे ही भगवान के साधु होना चाहिए। अर्थात भगवान को सारा संसार गाली देता है, मंदिर तोड़ता है, भगवान के साधुओं को दुखी करता है, ब्राह्मणों गौओं का विनाश करता है, फिर भी भगवान उसको जब भूख लगती है तो भोजन देते हैं, जैसा जीना चाहते हैं, वैसा जीवन देते हैं। सन्तान धन आदि सबकुछ देते हैं। भगवान से तो जीवों को द्वेष होता है, किन्तु भगवान को किसी भी जीव से राग द्वेष नहीं होता है। इसलिए साधुओं को भगवान का स्वरूप माना जाता है। क्योंकि जो दया क्षमा आदि गुण भगवान में जीवों के प्रति होते हैं, वही गुण भगवान के भक्तसाधुओं के हृदय में जीवों के प्रति होते हैं। भगवान भेदभाव पूर्वक जीवों का पालन, पोषण,या कल्याण आदि नहीं करते हैं तो साधुओं के हृदय में भी जीवों के प्रति भेदभाव नहीं होना चाहिए। जैसे भगवान हैं, वैसे ही उनके भक्त होना चाहिए।

RAM KUMAR KUSHWAHA
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