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Sunday, September 24, 2023
धर्म कर्म

साधुओं को ये 5 कार्य तो आजीवन नहीं करना चाहिए

ये जड़ प्रकृति,बिना भगवान के न स्वयं बनती है, और न ही कुछ बना सकती हैये जड़ प्रकृति,बिना भगवान के न स्वयं बनती है, और न ही कुछ बना सकती है
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आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
श्रीस्वामिनारायण सम्प्रदाय के प्रवर्तक श्रीसहजानन्द स्वामी ने अपनी शिक्षापत्री”
ग्रन्थ में साधुओं के लिए नियम बताते हुए 202 वें श्लोक में इन 5 नियमों का पालन करने का आदेश देते हुए कहा कि –
दूतकर्म न कर्तव्यं पैशुनं चारकर्म च।
देहेह्यहन्ता च ममता न कार्या स्वजनादिषु।।
(1) दूतकर्म
(2) पैशुन
(चुगली)
(3) चारकर्म ( धनादि के लोभ से व्यर्थ प्रसंशा)
(4) देह में अहंकार
(5) अपने स्वजनों में मोह ममता इन 5 प्रकार के कर्मों से साधु को सदा ही दूर रहना चाहिए। यदि कोई साधु इन पांच कर्मों को करते हैं तो वे साधु एक समान्य अज्ञानी अबोध गृहस्थ के समान ही कर्मों के फल को भोगता है।
आइए, अब इन दुर्गुणों पर विचार करते हैं।
(1) दूतकर्म
किसी के संदेश को लेकर किसी को कहना, दूतकर्म कहा जाता है। साधु को किसी का संदेशवाहक नहीं बनाना चाहिए। संसार के व्यवहार में संदेश भी एक कार्य है, कर्म है। सभी गृहस्थों में एक दूसरे का कार्य प्राय: संदेशों से ही चलता है। दूतकर्म में सभी प्रकार के संदेश होते हैं। जैसे कि किसी गृहस्थ ने कहा कि स्वामी जी! हमारी कन्या के लिए कोई अच्छा वर हो तो देखिएगा। लीजिए, स्वामी जी ने तुरन्त अपने किसी शिष्य के पुत्र को बता दिया। उस कन्या की प्रसंशा करते हुए विवाह का प्रस्ताव स्वयं स्वामी जी ने ही रख दिया। ये भी एकप्रकार का दूतकर्म है। अथवा किसी के पुत्र के लिए किसी की कन्या बता देना। इसके अतिरिक्त किसी के पैसों के लेन देन में बीच में पडऩा, इत्यादि सांसारिक गृहस्थ धर्म के विविध प्रकार के एक दूसरे की बातें कहना और करना ये सब ही दूतकर्म है। अर्थात साधुओं को गृहस्थों के सांसारिक व्यवहार में नहीं पडऩा चाहिए। क्योंकि सांसारिक व्यवहार में फंसे हुए साधु महात्मा का अकारण ही विरोध और वैर होने लगता है। अपयश होने लगता है। इसलिए भगवान ने साधुओं को दूतकर्म करने के लिए मना किया है।
(2) पैशुनम्
किसी की गुप्त बातों को किसी को भी बताने का नाम, पैशुनकर्म है। अर्थात चुगली करना। पहली बात तो यह है कि साधु को किसी की भी पारिवारिक आपसी बातें नहीं सुनना चाहिए। यदि किसी ने साधु का विश्वास करके किसी के विषय में कुछ अनुचित बात बता भी दी हो, तो भी साधु को उस बात को वहीं समाप्त कर देना चाहिए। वह बात उससे तो कभी भी नहीं बताना चाहिए, जिसके विषय में बात चली थी। यदि साधु , किसी की बात किसी को कहने लगते हैं तो विवाद होने पर साधु को व्यर्थ में ही साक्षी बनना पड़ता। साक्षी बननेवाले साधु का समाज में न तो आदर रहता है और न ही कोई विश्वास करता है। इसलिए साधु को सांसारिक व्यवहार का साक्षी बनने के निमित्तरूप पिशुनताकर्म अर्थात चुगलखोरी नहीं करना चाहिए।
(3) चारकर्म
राजाओं के यहां सभा में सभी के सामने चारण, भाट लोग आकर महाराज की अत्यधिक प्रसंशा करते थे। राजा प्रसन्न होकर उनको पुरस्कार देते थे। धन और प्रतिष्ठा के लोभ से की जानेवाली प्रसंशा को चारकर्म कहते हैं। जो भी व्यक्ति साधु की सेवा करते हैं, उनके दोषों को जानते हुए भी नहीं कहना, और जो गुण नहीं हैं, उन गुणों को बताकर सभी से प्रसंशा करना, चारकर्म कहा जाता है। गृहस्थों के आत्मकल्याण के लिए धर्म की चर्चा और संयम, नियम तथा भगवान की चर्चा करना चाहिए। साधुओं को रागवश किसी की अधिकाधिक रात दिन प्रसंशा भी नहीं करना चाहिए।
अब साधुओं के सबसे मुख्य नियम सुनिए –
देहेह्यहन्ता च ममता न कार्या स्वजनादिषु
(4) देहेह्यहन्ता
साधुओं को अपने शरीर में अहंकार नहीं करना चाहिए। साधुओं के शरीर का उपयोग उत्पत्ति के लिए नहीं होता है और न ही किसी का पालन पोषण करने के लिए होता है। साधु महात्मा का शरीर तो मात्र अपने उपयोग के लिए होता है। अपने आत्मकल्याण के लिए होता है। तपस्या के लिए तथा भजन और परोपकार के लिए होता है। साधु महात्मा के शरीर का उपयोग इसके अतिरिक्त किसी और काम के लिए नहीं होता है। देह तो अपनी आयु के अनुसार युवावस्था को भी प्राप्त होता है। युवावस्था आने पर शरीर में सुन्दरता भी सहज में ही आती है। बल की वृद्धि भी होती है। परोपकार तथा भजन भक्ति और तपस्या के कारण संसार में यश भी फैलता है। धन और प्रतिष्ठा दोनों की वृद्धि होती है। साधु महात्मा को यदि देह के प्रति अहंकार होगा तो कामनाओं की जागृति होगी। कामनाओं की पूर्ति न होने पर कामनापूर्ति का प्रयास भी करेंगे। एक कामना की पूर्ति होते ही दूसरी कामना होगी। इस प्रकार कामनाओं की पूर्ति में ही जीवन समाप्त हो जाएगा। इसलिए साधु को शरीर के प्रति अहंकार नहीं करना चाहिए। शरीर में अहंकार होना ही तो अज्ञान का लक्षण है। अज्ञानी साधु की संसार में तभी तक प्रतिष्ठा रहती है, जबतक संसार को उसके अज्ञान के कारण होनेवाले अहंकार का पता नहीं चलता है। अहंकारी साधु ,अपनी इन्द्रियों का नियन्त्रण नहीं कर सकते हैं और न ही लोकप्रतिष्ठा की रक्षा कर सकते हैं। भजन भक्ति तो बहुत दूर हैं।
(5) ममता न कार्या स्वजनादिषु
साधुओं को अपने स्वजनों के प्रति ममता नहीं करना चाहिए। संसार में प्रत्येक स्त्री पुरुषों को शारीरिक, मानसिक तथा आर्थिक आदि कोई न कोई समस्या तो बनी ही रहती है। साधु होने के बाद, भगवान की शरणागति स्वीकार करने के बाद सदा ही विरक्त विद्वान महापुरुषों ,साधुओं का ही संग करना चाहिए। भगवान की ही चर्चा करना चाहिए। भगवान के भक्तों के चरित्र ही सुनना चाहिए और कहना चाहिए। अपने गांव से आए हुए परिचितों से साधु को अपने बन्धु बान्धवों का समाचार नहीं पूंछना चाहिए,और न ही सुनना चाहिए। माता पिता, भाई, भाभी आदि स्वजनों के दुख के समाचार सुनने से साधु के मन में दुख की प्रतीति होने लगती है। सुख का समाचार सुनकर मन में हर्ष के भाव जागृत होने लगते हैं। इसलिए स्वामिनारायण भगवान ने साधुओं को विशेषरूप से संसार के सभी प्रकार के दुख सुखरूप समाचारों से दूर रहने के लिए कहा है। संसार के व्यवहार ही, निंदा, प्रसंशा, प्रतिष्ठा, धन आदि ही साधु के चित्त को अशान्त करते हैं।
न रहेगा बांश और न बजेगी बांसुरी।
सांसारिक व्यवहार ही नहीं रहेगा तो विविध व्यवहारों से होनेवाला दुख, व्याकुलता आदि कुछ भी नहीं रहेगा। मन को निर्मल करना जितना कठिन है, उससे अधिक तो मन को निर्मल रखना कठिन है। इसलिए साधुओं को गृहस्थों को सत्संग तो कराना चाहिए, किन्तु गृहस्थों का संग नहीं करना चाहिए।

RAM KUMAR KUSHWAHA
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