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Sunday, September 24, 2023
धर्म कर्म

इस संसार में सभी स्त्री पुरुषों में ये मानसिक रोग पाए जाते हैं

इस संसार में सभी स्त्री पुरुषों में ये मानसिक रोग पाए जाते हैं

जिनके पास सबकुछ है, वास्तव में उन्हीं के पास कुछ नहीं हैजिनके पास सबकुछ है, वास्तव में उन्हीं के पास कुछ नहीं है
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आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
रामचरित मानस के उत्तरकाण्ड के 121 वें दोहे की 28 वीं 29 वीं 30 वीं और 31वीं चौपाई में मानसिक रोग सन्निपात का वर्णन करते हुए कागभुसुण्डि जी ने गरुड़ जी से कहा कि –
सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा।।28।।
हे गरुड़ जी! अब मानसिक रोग सुनिए। संसार के सभी स्त्री पुरुष इस मानसिक रोग से ग्रस्त हैं, इसलिए सभी स्त्री पुरुष सदा ही दुखी बने रहते हैं।
पहला मानसिक रोग सुनिए –
मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला।
तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।29।।
मोह, एक ऐसा रोग है,इस एक रोग से ग्रस्त होते ही शेष अनेक मानसिक व्याधियां अपने आप ही उत्पन्न हो जातीं हैं। इस मोह रोग से ग्रस्त होते ही अनेक व्याधियां बार बार सूल अर्थात दुख दर्द देते हैं। मोह ही सभी मानसिक रोगों की जड़ है। दुख का मूलकारण भी मोह ही है, तो सब रोगों के कारण पर ही अधिक विचार करना चाहिए। क्योंकि कारण नष्ट होते ही सारे दुखों का भी नाश हो जाता है।
मोह क्या है?
मोह शब्द, संस्कृत भाषा का शब्द है। मुह – वैचित्ये। मुह, धातु है। धातु को क्रिया कहते हैं। मुह का अर्थ होता है, वैचित्य। विचित को ही वैचित्य कहते हैं। जिसके कारण चित्त विपरीत हो जाता है। अर्थात सुख को दुख समझता है, और दुख को सुख समझता है। यही चित्त की विपरीतता है। धर्म पालन में दुख समझता है और पाप और अधर्म करने में सुख देखता है, इसी को चित्त का मोह कहा जाता है। अज्ञान के कारण ही मोह होता है। मोह कहां कहां होता है? सबसे पहले तो जन्म से लेकर मृत्यु पर्यंत अपने शरीर से ही मोह होता है। अपने शरीर सम्बन्धियों के प्रति मोह होता है। सबसे पहले माता पिता होते हैं। फिर भाई बहिन होते हैं। इसके बाद भाई बहिनों का जिनके साथ विवाह होता है, उनसे मोह होता है। भाई बहिनों की सन्तानों से मोह होता है। अब अपने शरीर के लिए जिस जिस वस्तु व्यक्ति तथा स्थान, घर द्वार, की आवश्यकता पड़ती जाएगी, बस, मोह बढ़ता जाएगा। बढ़ता जाएगा, बढ़ता जाएगा, बढ़ता ही जाएगा। जब ये रोग बढ़ता गया तो वस्तुओं से, व्यक्तियों से तथा उनसे सम्बन्धित कार्यों से मोह बढ़ता जाएगा। अब आयु के साथ साथ पत्नी, पति, पुत्र पुत्री, नाती, भांजे भांजी आदि का मोह बढ़ता गया।
कहने का तात्पर्य यह है कि मोह का रोग इतना जलदी बढ़ता है कि जिसका पता नहीं चलता है।
अब 30 वीं चौपाई में मोह के होने से होनेवाली व्याधि देखिए –
काम बात कफ लोभ अपारा।
क्रोध पित्त नित छाती जारा।।30।।
अब आपको मोह के कारण तीन रोग और होंगे। वात, कफ, और पित्त।
(1) कामदेव और कामना ही वात अर्थात वायु है।
अपने शरीर के प्रति मोह के कारण काम जागृत होता है। सभी स्त्री पुरुषों में उत्पत्ति करनेवाला काम जागृत होता है। पुरुष के काम जागृत हुआ तो उसने स्त्री को स्वीकार कर लिया और स्त्री के हृदय में काम जागृत हुआ तो उसने पुरुष को स्वीकार कर लिया।
(2)अपार लोभ ही कफ है।
इस शरीर में में कामदेव ही वात है। अब जीवन संचालन के लिए वस्तुओं का संग्रह किया। लोभ जागृत हुआ। अब ये मेरा है, मेरा है। इका करने की प्रवृत्ति बढऩे लगी। इसी इका करने के लोभ ने सबके सम्बन्ध, प्रेम नष्ट हो गए। जिनके लिए करते थे, मरते थे, वे सब दूर दूर हो गए। अब मजे की बात यह है कि आप अकेले एकतरफ होंगे और आपसे सम्बन्धित सब एकतरफ होंगे। आप सबकी इच्छा पूर्ण करने में लगे रहेंगे, वे सभी आपको कुछ न कुछ तो कहेंगे ही। आप करते रहेंगे और वे कहते रहेंगे। उनकी संख्या अधिक हो जाएगी और पूर्ण करनेवाला तो एक ही रहेगा। इतना सब होने के बाद भी, इतना सब प्रकार का दुख भोगने पर भी, इतना अपमान होने पर भी ये रोग समझ में नहीं आता है। अन्त में सबकोई आपको अकेला छोड़ देंगे।
ये है मोह रोग का फैलाव। यही सभी स्त्री पुरुषों के साथ होता है।
क्रोध पित्त नित छाती जारा।
(3) क्रोध ही पित्त है।
जब आप सबकी इच्छाएं पूर्ण नहीं कर पाएंगे, या कोई आपकी इच्छा पूर्ण नहीं कर पाएगा तो क्रोध आएगा। ये क्रोध ऐसा पित्त है कि ईष्र्या द्वेष से छाती जलती रहेगी। मोह के होते ही कामना का वात, लोभ का कफ, और क्रोध का पित्त बढऩे लगेगा। अब चित्त विचित हो गया। जिनका विवाह नहीं हुआ है वे भी इसी मोह में फंसे हुए हैं। या साधु महात्मा हो गए हैं तो भी यह मोह रोग लगा है।
अब अंतिम बात देखिए –
प्रीति करहिं जब तीनिउ भाई।
उपजय सन्यपात दुखदाई।।31।।
अब जब वात, कफ और पित्त स्वरूप काम, लोभ और क्रोध तीनों एकसाथ हो जाते हैं तो सन्निपात हो जाता है। सन्निपात में फंसे हुए रोगी की बुद्धि विचलित हो जाती है। अब उसे हित अहित कुछ भी समझ में नहीं आता है। दुख देनेवालों के पीछे भागता चला जाता है। जहां सुख मिलना है, वहां नहीं जाता है। जिससे सुख मिलता है, वह नहीं करता है। इस प्रकार से संसार के सभी स्त्री पुरुष इस मानसिक रोग से ग्रस्त हैं। इसलिए सभी एक दूसरे को दुखी करते रहते हैं। कभी सुख का अनुभव होता है तो भी वह अन्त में दुख ही भोगता है। इस मोह रोग के लक्षण और उपचार को कोई कोई वैद्यगुरु ही जानते हैं। उनके पास रहकर उनके अनुसार परहेज करके, उनके द्वारा दिए गए उपदेशों का आचरण करके ही इस रोग को कम किया जा सकता है। नष्ट भी किया जा सकता है। बस, शर्त ये है कि सद्गुरु वैद्य के पास ही रहना पड़ेगा,और कोई दूसरा उपाय ही नहीं है। इस मोह रोग को नष्ट करने में समय लगेगा। सत्संग स्वाध्याय की औषधि को नियमित लीजिए और परहेज करिए तो दुख और दुख देनेवाले सभी दूर हो जाएंगे।
इसीलिए कहा गया है कि –
मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला
ये मोह ही सब दुखों की जड़ है।

RAM KUMAR KUSHWAHA
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