आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के 18 वें अध्याय के 32 वें श्लोक में अर्जुन को तामसी बुद्धि के स्त्री पुरुषों के लक्षण बताते हुए कहा कि –
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता।
सर्वार्थान् विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी।।
अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसावृता –
जो बुद्धि तमस् अर्थात तमोगुण से ढंकी रहती है,वह बुद्धि, अधर्म को ही धर्म मानती है।
इस पर थोड़ा विचार करना चाहिए –
तमस् का अर्थ होता है अंधेरा। अंधेरे में कोई भी वस्तु स्पष्ट दिखाई नहीं देती है। इसीलिए वह किसी भी वस्तु को दूसरी वस्तु ही बताता है। जैसे कि अंधेरे में पड़ी हुई रस्सी को, या माला को देखनेवाले स्त्री पुरुष उसे सांप ही बताने लगते हैं। जबतक कोई प्रकाश नहीं आता है, तबतक उनको रस्सी में सांप ही दिखाई देता रहेगा। तबतक वे कमरे में जा भी नहीं सकते हैं। बस, यही गुण प्रकृति के तमोगुण में होता है।
जिन स्त्री पुरुषों की बुद्धि तमोगुणी होती है, वे अधर्म को ही धर्म मानते हैं। तथा अधर्म को धर्म मानकर ही आचरण करते हैं। अब आप ही सोचिए कि यदि कोई अधर्म को धर्म मानकर आचरण करेगा तो अधर्म की ही वृद्धि होगी न? धर्म की वृद्धि तो नहीं होगी। अभी कलियुग में प्राय: सभी स्त्री पुरुषों की बुद्धि तमोगुण से आच्छादित है, इसीलिए शास्त्रों में कहे गए धर्म को अधर्म मानते हैं और मांसाहार करना, स्त्री पुरुष के स्वतन्त्रता पूर्वक स्वीकृत रूप व्यभिचार को , स्त्री पुरुष की समानता का धर्म मानते हैं।वर्तमान में तमोगुणी प्रधान शाशक , भक्ष्य अभक्ष्य के विचार को अधर्म और सामाजिक अन्याय मानता है। कोई भी किसी का भी, कभी भी कैसा भी भोजन करे, इसी को धर्म मानकर फलस्वरुप रोगों को उत्पन्न करने का मुख्य कारण है।
संयम,नियम,पूजा ,उपासना , भक्ष्य , अभक्ष्य, स्पृश्यास्पृश्य आदि के विचार विवेक के धर्म को अधर्म मानता है।अब जब अच्छे को बुरा मानकर छोड़ दिया जाता है तो कभी अच्छा होने की सम्भावना करना ही बुद्धिमानी नहीं है। तथा जब बुरे को अच्छा मानकर स्वीकार कर लिया जाता है तो भी परिणाम तो बुरा ही होना है। तो भी अच्छे की आशा करना बुद्धिमानी नहीं है। अर्थात तमोगुणी स्त्री पुरुषों से कभी भी ये आशा नहीं करना चाहिए कि ये कभी सामाजिक हित करेंगे या पारिवारिक हित करेंगे या देशहित करेंगे। जो शाशक, धर्म को अधर्म मानकर और धर्म को अहितकारी मानकर त्याग देता है, उसके राज्य में जनता को न तो कभी सुख प्राप्त होता है और न ही शान्ति मिलती है।
जबकोई शाशक, अधर्म को ही धर्म मानता है तो अधर्म के ही नियम बनाकर जनता में लागू करता है, और फिर ऐसी कामना करता है कि सारे संसार में मुझे श्रेष्ठ माना जाए। मैं जो कर रहा हूं, वही अच्छा है और हितकारी है। ये तमोगुणी विचार ही देश और समाज का नाश करते हैं। अधर्म को धर्म माननेवाले शाशक के राज्य में अधर्म की इतनी अधिक वृद्धि हो जाती है कि उसके पास सत्य असत्य का निर्णय करनेवाले न्यायाधीश कम पड़ जाते हैं। क्योंकि अधर्म में तो हिंसा, व्यभिचार , लूटपाट, धोखाधड़ी, ठगी आदि जनता का प्रत्येक व्यक्ति करने लगता है, ऐसी स्थिति में कौन निर्णय करेगा कि कौन सही है और कौन गलत है?जब तमोगुण होता है तो सत्य को छोडक़र असत्य का पक्ष लेता है। ईमानदारी को छोडक़र बेइमानी को हितकारी मानता है। स्त्री पुरुष की मर्यादा को अहितकारी मानकर स्वतन्त्रता पूर्वक सम्मिलन को हितकारी मानता है। इत्यादि सब उल्टा ही होता है।
ऐसी विपरीत परिस्थिति उपस्थित होती है। जिसका फल तो दुख, अन्याय, व्यभिचार, भ्रष्टाचार तथा अत्याचार के रूप में स्पष्ट दिखाई देता है।
अब आधे श्लोक पर भी विचार करिए –
सर्वार्थान् विपरीतांश्च बुद्धि: सा पार्थ तामसी
भगवान ने कहा कि हे अर्जुन! कहांतक गिनाएं?
सर्वार्थान् विपरीतांश्च
तमोगुणी स्त्री पुरुषों को सभी हितकारी पदार्थ विपरीत ही दिखाई देते हैं।
शरीर के लिए जो घी, दूध, आदि खाद्य पदार्थ हितकारी होंगे, वे सभी तमोगुणी स्त्री पुरुषों को अच्छे नहीं लगते हैं। बाजार की विविध प्रकार के रोगों को जन्म देनेवालीं बनी हुई खाद्य वस्तुएं ही प्राय: सबको प्रिय लगेंगीं। ये सब तमोगुण से आच्छादित बुद्धि का दुष्परिणाम है।
तमोगुणी स्त्री पुरुषों की शिक्षा में ऐसी शिक्षा होगी कि जिसमें सभ्यता, सुरक्षा, आत्मसंयम, शुद्धता आदि संस्कार नहीं होंगे। इसलिए अधिक से अधिक शिक्षित स्त्री पुरुषों की भी दृष्टि , तनसुख में ही रहेगी। धन संग्रह के लोभ की इतनी अधिक वृद्धि होती है कि निर्दयता पूर्वक दूसरों का धन लेने की प्रबलकामना होगी। इसलिए घूस, चोरी, बेईमानी आदि की वृद्धि होती जाएगी। यही शिक्षित स्त्री पुरुष आगे न्यायाधीश तथा वकील आदि के रूप में मिलेंगे। डाक्टर, औषधिनिर्माता आदि सभी तमोगुण प्रधान हैं। वे भी इसी तमोगुण के कारण विपरीत मार्गदर्शक बनेंगे।
बुद्धि: सा पार्थ तामसी
अर्थात आजकल कलियुग में तमोगुण की वृद्धि के कारण ही आज का शाशन तथा शाशकवर्ग तथा कानून, अधर्म को ही धर्म मानकर नियम बनाकर सुख की व्यर्थ कामना करते हैं ।
तमोगुणी और रजोगुणी स्त्री पुरुषों की तृष्णा ही उनको सुख और शान्ति से दूर रखती है।
जनता भी सभी प्रकार से तमोगुणी होकर इनका ही अनुगमन करेगी तो वह भी आपस में एक दूसरे के साथ धोखाधड़ी, लूटपाट, हिंसा आदि विपरीत आचरण को अपना धर्म मानकर दुखी रहेगी। अब चारों तरफ लोकतंत्र के नाम पर स्वतन्त्रता, स्वच्छन्दता, उद्दण्डता, मनमाना आचरण, स्वयं के ही बनाए हुए नियमों का उल्लंघन आदि सबकुछ विपरीत ही विपरीत दिखाई देगा। इसलिए विद्वान महापुरुष के सत्संग से और शास्त्रों के स्वाध्याय से अपने मन को संयमित और सात्विक रखने का सदा ही प्रयास करते रहना चाहिए। अपने धर्म का पालन करते हुए, ऐसे व्यक्तियों से जितना आवश्यक हो, उतना ही व्यवहार करना चाहिए। इनका संग नहीं करना चाहिए और न ही इनके विषय की आपस में किसी से चर्चा विचारणा करना चाहिए। इस छोटी सी आयु में थोड़ा सा संयम नियम आपको इन तमोगुणी स्त्री पुरुषों से मुक्त रखेगा। तभी मन में सुख और शान्ति रहेगी। शरीर भी स्वस्थ रहेगा।
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