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Sunday, September 24, 2023
धर्म कर्म

ब्राह्मण द्वेषी कुछ भी कहें, किन्तु आपका संविधान तो जन्म से ही जाति मानता है ।

Visfot News

आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
महाभारत के अनुशासनपर्व के 35 वें अध्याय के प्रथम श्लोक में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर जी से कहा कि –
जन्मनैव महाभागो ब्राह्मणो नाम जायते।
नमस्य: सर्वभूतानामतिथि: प्रसृताग्रभुक्।।
भीष्म पितामह ने कहा कि हे युधिष्ठिर! ब्राह्मण जाति तो जन्म से ही श्रेष्ठ होती है।
जन्मनैव महाभागो ब्राह्मणो नाम जायते
मनुष्यों में जैसे जन्म से ही सभी जातियां होतीं हैं ,उसी प्रकार ब्राह्मण भी जन्म से ही श्रेष्ठ होते हैं।
नमस्य: सर्वभूतानाम्
सभी मनुष्यों के लिए वे ही नमस्कार करने योग्य हैं। संसार में ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है कि जिसको ब्राह्मण प्रणाम करे। क्षत्रिय वैश्य आदि सभी वर्ग के पूज्य ब्राह्मण ही हैं।
सर्वभूतानामतिथि:
सभी मनुष्यों के लिए ब्राह्मण सदा ही अतिथि ही है।
प्रसृताग्रभुक्
सबसे पहले ब्राह्मण ही अग्रभोक्ता है। समाज में सबसे पहले ब्राह्मण को ही भोजन कराना चाहिए।
महाभारत के इसी अनुशासन पर्व के 27 वें अध्याय के 5 श्लोक पर भी अब थोड़ा ध्यान दीजिए –
ब्राह्मण्यं तात दुष्प्राप्यं वर्णै: क्षत्रादिभिस्त्रिभि:।
परं हि सर्वभूतानां स्थानमेतद् युधिष्ठिर।
भीष्म पितामह ने कहा कि हे युधिष्ठिर! क्षत्रिय वैश्य तथा शूद्र कितना भी तप, जप, उपवास व्रत नियम संयम आदि सत्कर्म कर लें, किन्तु इस जन्म के शरीर में तो ब्राह्मणत्व प्राप्त करना दुर्लभ है। अर्थात असम्भव है। बिना मरे दूसरा जन्म नहीं होता है और इसी शरीर में दूसरी जाति के गुण धर्म आना असम्भव हैं।
क्योंकि –
परं हि सर्वभूतानां स्थानमेतद् युधिष्ठिर।
सभी मनुष्यों में ब्राह्मणत्व सर्वश्रेष्ठ स्थान है।
कोई कितना भी कहे कि कर्म से जाति होती है, किन्तु वह यह नहीं बता सकता है कि किस ग्रंथ में लिखा है कि कर्म से जाति होती है। क्योंकि वह जिन संस्कृतभाषा के वेद पुराण का प्रमाण देते हैं, वे भ्रम के कारण एक दो उदाहरण देकर खींचा तानी करते हैं। किन्तु कर्म से जाति माननेवालों से कहा जाए कि आप यदि एक दो उदाहरण भी पुराणों के ही देते हैं तो पुराणों की पूरी बात क्यों नहीं मानते हैं? जिस पुराण का या महाभारत का उदाहरण दे रहे हैं, वहीं ब्राह्मण का महत्त्व और श्रेठता लिखी हुई है, तो वो क्यों नहीं पचा पाते हैं? आधी मुर्गी आगे की पकाकर खालें और आधी अंडे देने के लिए छोड़ दी जाए, ऐसा कैसे हो सकता है? किसी ग्रंथ की आधी बात मानी जाए और आधी न मानी जाए, इसको मानना नहीं कह सकते हैं।
अब देखिए कि वर्तमान के संविधान में भी जन्म से ही जाति मानी जा रही है। यदि संविधान में कर्म से जाति मानते तो जो ब्राह्मण दूसरी जाति के कर्म कर रहे हैं, ब्राह्मण कर्म को नहीं कर रहे हैं, तो उन्हें दूसरी जातियों में क्यों नहीं मानते हैं? संविधान भी जन्म से ही जाति मान रहा है। क्योंकि कोई ब्राह्मण गरीब भी है, अनपढ़ भी है, कमजोर भी है, मजदूरी भी करता है तो उसे दलित या हरिजन क्यों नहीं मानते हैं? उसको आरक्षण आदि योजनाओं का लाभ क्यों नहीं देते हैं ? इससे भी बड़ी बात यह है कि कोई हरिजन, दलित, सरकारी नौकरी भी कर रहे हैं। धनवान बलवान, तथा सुखी भी है, कर्म से तो वह कोई अधिकारी हैं, तो कर्म के अनुसार उसकी जाति मानी जाए, उसको अब दलित हरिजन मानकर उसको प्रमोशन आदि कैसे दिया जाएगा? अर्थात आपके नेता और संविधान सभी तो जन्म से ही जाति मानते हैं। मान्यता का सबसे बड़ा आश्चर्य तो यह है कि सारी जातियां जन्म से मानी जाएंगीं और मात्र ब्राह्मण जाति ही कर्म से मानी जाएगी। चलिए, ठीक है, आपकी ही बात मान लेते हैं कि कर्म से ब्राह्मण जाति होती है। ठीक है न! अब आप ही बताएं कि यदि ब्राह्मण जाति का व्यक्ति कोई भी कर्म ब्राह्मण के नहीं कर रहा है, तो उसको जातिप्रमाणपत्र किस जाति का बनवाना चाहिए? बताइए बताइए? अब सरकार के पास जाइए कि यदि हरिजन दलित ने अपना काम छोडक़र कोई नौकरी कर ली है, तो क्या सरकार के पास ऐसा कोई मापदण्ड है कि जितनी प्रकार की नौकरी होंगीं, उतनी प्रकार की जाति होंगीं?
और फिर यदि आप वेद, पुराण, धर्मशास्त्रों को मानते ही नहीं हैं ,तो उनमें लिखीं हुईं जातियों को ही क्यों मान रहे हैं? मनुष्य की कुछ अलग से ही जाति मानिए। क्योंकि मनु शब्द भी पुराणों से आया है, तो मनुष्य, शब्द भी धर्मशास्त्रों का ही है। इस दो हाथ, दो पैर वाले बुद्धिमान जीव का नाम भी कुछ और ही रखिए, जिसमें मनुष्य आदि शब्दों का उच्चारण ही न हो। जाति मानना तो मनुष्य जाति की मजबूरी है। जातिवाचक शब्दों के बिना तो आप किसी भी प्रकार का व्यवहार ही नहीं कर सकते हैं। शब्द बदले जा सकते हैं, किन्तु भाव और भेद नहीं बदला जा सकता है। भारत और भारतीयता का प्रारम्भ, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र आदि जातिवाचक शब्दों से ही हुआ है तो आज भी है और प्रलय पर्यंत यही व्यवहार होता रहेगा। मनुष्य के बस में नहीं है कि मनुष्य की जाति ही नष्ट कर दे।
जाति तो जन्म से ही होती है, कोई माने या न माने।
क्योंकि एक ही परिवार में अनेक प्रकार के कर्म करनेवाले लोग होते हैं, कुछ लोग तो अपनी जाति का कर्म ही त्यागकर बैठे हैं, फिर भी एक ही परिवार की परंपरा से आज भी सबकी वही जाति लिखी जा रही है, जो उनके हजारों पीढिय़ों से लिखते चले आ रहे हैं। मनुष्य ही असत्य बोलनेवाला होता है, शास्त्रों की बातें, न कभी असत्य हुईं हैं और न ही आगे कभी असत्य होंगीं।

RAM KUMAR KUSHWAHA
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