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Sunday, September 24, 2023
धर्म कर्म

प्रकृति और परमात्मा,दोनों ही तर्कों से सिद्ध नहीं होते हैं

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आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
महाभारत के भीष्मपर्व के 5 वें अध्याय के 11 वें और 12 वें श्लोक में संजय ने धृतराष्ट्र को संसार में प्रकृति की विलक्षणता बताते हुए कहा कि —
तत्र तत्र हि दृश्यन्ते धातव: पाञ्चभौतिक:।
तेषां मनुष्यास्तर्केण प्रमाणानि प्रचक्षते।। 11।।
तत्र तत्र हि दृश्यन्ते धातव: पाञ्चभौतिक:
सञ्जय ने कहा कि हे महाराज धृतराष्ट्र! संसार में जितने भी लोक लोकान्तर हैं, उन सभी लोकों में इन पंचमहाभूतों के पदार्थ ही प्राप्त होते हैं। मृत्यु लोक में जैसे पृथिवी है, जल है, वायु, और अग्नि है तथा आकाश है। इसी प्रकार स्वर्ग लोक से लेकर नीचे के पाताल आदि सातों लोकों में पृथिवी है, जल, तेज, वायु, अग्नि और आकाश है।
जैसे मृत्युलोक के शरीरों में नेत्र, नासिका, कान, जिह्वा, त्वचा, हाथ, पैर, लिंग, गुदा, वाणी ये दश इन्द्रियां होतीं हैं , उसी प्रकार सभी स्वर्गादि पातालादि लोकों के जीवों के शरीरों में यही इन्द्रियां होतीं हैं। इस मृत्युलोक में जिस इन्द्रिय से जो विषय ग्रहण किया जाता है, उसी प्रकार दूसरे लोकों में भी उसी इन्द्रिय से वही विषय ग्रहण किए जाते हैं। अनन्त ब्रह्माण्डों के अनन्त जीवों के अनन्त शरीर पंचमहाभूतों से ही बने हुए हैं। जैसे मृत्युलोक के प्राणी नेत्रों से देखते हैं और कानों से सुनते हैं तो दूसरे लोकों के जीव भी आंखों से ही देखते हैं और कानों से ही सुनते हैं। अर्थात न तो विषयों में अन्तर होता है और न ही विषयों को भोगने की इन्द्रियों में अन्तर होता है, तथा न ही विषयभोगने की वृत्ति में अन्तर होता है, और न ही विषय भोगने के आनन्द में अन्तर होता है। बस, अन्तर तो मात्र समय में, ही होता है। किसी लोक के जीवों से किसी लोक के जीवों की आयु अल्प होती है। शरीरों के सामथ्र्य में बल में शक्ति तथा व्यवहार आदि में अन्तर होता है।
संजय ने कहा कि हे महाराज धृतराष्ट्र! इसलिए सभी लोकों में युद्ध ,प्रेम, शत्रुता आदि दोष गुण सबकुछ समान ही होते हैं।
तेषां मनुष्यास्तर्केण प्रमाणानि प्रचक्षते
ये मनुष्य योनि के जीव अपनी बुद्धि के अनुसार विविध प्रकार के तर्कों से प्रकृति का प्रमाण बताते भी हैं और तर्क के अनुसार उसकी सत्यता को प्रमाणित करते हुए कहते भी हैं कि ये ऐसा ही है, ऐसा ही है। किन्तु मनुष्य की बुद्धि, प्रकृति के सम्पूर्ण सत्य का प्रत्यक्ष भी नहीं कर सकती है। मात्र तर्क कर सकते हैं। पूर्ण सत्य तो मनुष्य की बुद्धि के सामथ्र्य से अनन्तगुना है।
ये सब प्रकृति का ही विस्तार है।
अब 12 वें श्लोक को ध्यान से देखिए कि बुद्धिमान मनुष्य को क्या सोचना चाहिए? क्या तर्क भी नहीं करना चाहिए?
अचिन्त्या: खलु ये भावा: न तांस्तर्केण साधयेत्।
प्रकृतिभ्य: परं यत्तु तदचिन्त्यस्य लक्षणम्।।12।।
अचिन्त्या: खलु ये भावा: न तांस्तर्केण साधयेत्
इसलिए प्रकृति के जो भाव मनुष्य की बुद्धि से अचिन्त्य अर्थात विचार करने की शक्ति से अधिक होते हैं , उनको अपनी बुद्धि के तर्क से प्रमाणित करने का व्यर्थ प्रयास नहीं करना चाहिए। क्योंकि कि मनुष्य की बुद्धि भी प्रकृति से ही निर्मित होती है। सभी मनुष्यों में बुद्धिमान मनुष्य वैज्ञानिक आदि इस अनन्त प्रकृति के विषय में तथा इस प्रकृति के कर्ता धर्ता परमात्मा के विषय में अघटित तर्क करके कुछ निश्चित बताते हैं तो, संसार के अज्ञानी मूढ़ मनुष्य भ्रमित हो जाते हैं। सत्यमार्ग से भी कोसों दूर हो जाते हैं। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि जनता को अनन्तप्रकृति तथा अनन्तपरमात्मा के विषय में अनर्गल तर्कहीन तर्क देकर मूढ़ जनता को भ्रमित नहीं करना चाहिए।
अचिन्त्य किसे कहते हैं तो सुनिए –
प्रकृतिभ्य: परं यत् तु तदचिन्त्यस्य लक्षणम्
जो परमात्मतत्त्व, पृथिवी से जल से , अग्नि से, वायु से, आकाश आदि प्रकृति से परे होता है, पृथक् होता है, वही अचिन्त्य कहा जाता है। मनुष्य, देवता, गन्धर्व आदि सभी बुद्धिशाली योनियों के सबसे अधिक बुद्धिमान जीव भी प्रकृति से रहित तत्त्व परमात्मा के विषय में तर्क नहीं कर सकते हैं। क्यों कि सभी की बुद्धि तो प्रकृति से ही बनी हुई है तो भला प्रकृति से परे निर्गुण तत्त्व के विषय में बुद्धि कैसे सोच विचार कर सकती है? अर्थात कोई भी मनुष्य तो प्रकृति के सम्पूर्ण पदार्थों की अनन्तशक्ति का भी अनुमान और अनुभव नहीं कर सकता है तो भला प्रकृति और परमात्मा के विषय में सटीक सत्य तर्क कैसे दे सकता है? प्रकृति और प्रकृति का नियन्त्रण कर्ता परमात्मा, ये दोनों ही संसार के सभी लोकों के जीवों की बुद्धि के तर्क से और मन की कल्पना से बाहर हैं।
प्रकृति का सेवन तो शरीरसामथ्र्य के अनुसार करना चाहिए और परमात्मा की सत्ता को मानते हुए भगवान की भक्ति सेवा तथा आत्मज्ञान के लिए प्रयास करते रहना चाहिए। भगवान की कृपा से ही मनुष्य को सुख शान्ति तथा मोक्ष प्राप्त होता है , सूखे तर्कों से तथा बुद्धिमत्ता के मिथ्या अहंकार से मूढ़ता बढ़ती जाएगी और कुछ हासिल नहीं होगा।

RAM KUMAR KUSHWAHA
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