आचार्य ब्रजपाल शुक्ल
रामचरितमानस के लंकाकाण्ड के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण के तीसरे (3) श्लोक में तुलसीदास जी ने भगवान शंकर जी के स्वरूप का वर्णन करते हुए अपने लिए कल्याण की याचना करते हुए कहा कि –
यो ददाति सतां शम्भु: कैवल्यमपि दुर्लभम् ।
खलानां दण्डकृद् योह्यसौ शंकर: शं तनोतु मे ।।
तुलसीदास जी ने कहा कि जो शंकर जी सज्जन स्त्री पुरुषों को अतिदुर्लभ कैवल्य अर्थात मोक्ष प्रदान करते हैं, वही शंकर जी दुष्टों, खलों को दुष्कर्मों के फलस्वरुप दुखरूप विविध प्रकार के दण्ड भी देते हैं, ऐसे शंकर जी मुझे कैवल्यरूप सुख प्रदान करें।
यो ददाति सतां शम्भु: कैवल्यमपि दुर्लभम्
कैवल्य क्या है थोड़ा इस पर विचार कर लीजिए!
केवल अर्थात मात्र। केवल अर्थात एक। केवल को ही कैवल्य शब्द से कहा जाता है। संसार में जीवों की संख्या करना , किसी की भी बुद्धि में सामथ्र्य नहीं है। यहां जो भी शरीरधारी जीव है, वह अकेला नहीं हो सकता है। केवल अकेला नहीं हो सकता है। प्रत्येक जीव के शरीर के रक्त में, मल मूत्र में ही अगणित जीव भरे रहते हैं। जो भी वस्तु खाएगा, उस वनस्पति में, जल में, जीव होते हैं। जहां बैठेंगे, खड़े होंगे, बोलेंगे, सोएंगे, भोग करेंगे, सर्वत्र जीव ही जीव मिलेंगे। आकार में बड़े होंगे तो आंखों से दिखेंगे, शरीर से स्पर्श होगा तो किसी ने छुआ, ऐसा अनुभव होगा। कुछ ऐसे जीव भी हैं, जो होते हुए भी, न तो आंखों से दिखाई देते हैं और स्पर्श होने पर भी अनुभव नहीं होता है,किन्तु वे होते हैं। ऊपर नीचे, आगे पीछे चारों तरफ जीव ही जीव हैं। कोई भी जीव अकेला केवल स्वयं ही कहीं भी नहीं रह सकता है। इसलिए कहा गया है कि अकेला होना अतिदुर्लभ है। कैवल्य को मोक्ष कहा जाता है। जब भगवान ही किसी जीव को मोक्ष प्रदान करते हैं तो वह अकेला होता है। केवल वह ही होता है। जिसको इस माया से मुक्ति मिल जाएगी, तो शरीर भी नहीं होता है। शुद्ध आत्मा ही आनन्द स्वरूप होता है। उसके साथ प्रकृति ही नहीं होती है। जब पृथिवी, जल, तेज, वायु,आकाश , अहंकार आदि कुछ भी नहीं होगा तब वह एकमात्र अकेला ही जीवात्मा होगा। वह कैवल्य होगा। मोक्षदाता भगवान और जिसका मोक्ष होगया है, वह जीवात्मा। दो ही होंगे। संसार होगा ही नहीं। दुख होगा ही नहीं। मात्र अपना आत्मा का आनन्द। न भोजन होगा और न ही भूख होगी। न भोग्य पदार्थ होंगे, और न ही कोई भोगनेवाला होगा। कामना ही नहीं होगी। न जन्म होगा और न ही मृत्यु होगी। अर्थात आपको जो भी यहां होते हुए दिखाई दे रहा है, वह कुछ भी नहीं होगा। इसी को केवल अर्थात एकमात्र अकेला, कैवल्य मोक्ष कहते हैं।
कैवल्य किसे प्राप्त होता है तो सुनिए –
यह कैवल्य भी सत्पुरुषों, सज्जनों को ही प्राप्त होता है।
अब आप सोचिए कि वह कैसा सज्जन होगा उसका कैसा हृदय होगा जिसको भगवान शम्भु ,इस संसार के शरीर से सदा के लिए मुक्त करके आत्मस्वरूप में स्थित कर देंगे। वह जीवात्मा शरीरधारी होते हुए भी कामनाहीन होगा। संसार में आपको जिस जिस प्रकार की कामना हो रही है, उस सज्जन के हृदय में वो कुछ भी नहीं होगा। वह तो जीते जी ही शरीर के भूख, प्यास, भोग, प्रतिष्ठा आदि की कामना से ही मुक्त होगा। ऐसे सज्जनों को ही मुक्ति प्राप्त होती है। ऐसी सज्जनता ही पात्रता है। करोड़ों में कोई ही ऐसा होगा, जिसको भगवान शिव ही सज्जन मानते जानते होंगे। जो संसार की कामना ही न करता हो, वही सज्जन है। ऐसे सज्जनों को ही भगवान शंकर मोक्ष देते हैं।
खलानां दण्डकृद्
जो सज्जन पुरुष संसार के क्रूर से क्रूर निर्दयी हिंसक मांसाहारी जीवों पर भी दयालुता कृपालुता दिखाते हैं, ऐसे सज्जनों को, जो भी स्त्री पुरुष दुखी करते हैं, उनके साथ दुव्र्यवहार करते हैं, उनको ही खल कहते हैं। सबके हितकारी महापुरुषों का अपमान, अनादर करनेवाले दुष्ट स्त्री पुरुषों को यही दयालु कृपालु शंकर जी दण्ड देते हैं। ऐसा दण्ड देते हैं कि दुखों की परम्परा ही समाप्त नहीं होती है। शारीरिक रूप से तो दण्ड देते ही हैं, मानसिक प्रताडऩा भी देते हैं। रोग, भी एक दण्ड है। राजदण्ड भी दण्ड है। सामाजिक अप्रतिष्ठा भी दण्ड है। तन, धन,और प्रतिष्ठा की हानि ही तो शारीरिक मानसिक दण्ड है। खल अर्थात दुष्ट स्त्री पुरुष, इस संसार में अपनी दुष्टता से सबकुछ प्राप्त करके भी सदैव दुखी रहते हैं , यही तो सबसे बड़ा दण्ड है।भगवान के कृपापात्र सज्जनों को दुख देनेवाले स्त्री पुरुष को जितनी अशांति होती है, उतनी अशान्ति दुख सहन करनेवाले सज्जनों को नहीं होती है।
तुलसीदास जी ने प्रार्थना करते हुए कहा कि –
शंकर: शं तनोतु मे
द्विविधरूपधारी शंकर जी मुझे शं अर्थात मोक्षरूपी सुख प्रदान करें। शं अर्थात सुख, करनेवाले, देनेवाले को शंकर कहते हैं। शंकर जी मेरे लिए शंकर हो जाएं। महापुरुषों के द्वारा की गई स्तुति प्रार्थना को ही अपनी प्रार्थना मानकर पाठ करते समय ऐसी भावना करना चाहिए,जो भावना उसमें लिखी हुई है । इसलिए स्तोत्र, स्तुति भले ही हिन्दी में ही हो, उसका पाठ करते समय वैसी ही भावना करना चाहिए, जैसा उसमें कहा गया है। ऐसा करने से हृदय में भक्ति और भावना दोनों की जागृति होती है।
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शंकर जी इतने भोले भी नहीं हैं कि आप कुछ भी करते रहो
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RAM KUMAR KUSHWAHAOctober 17, 2021
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