ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
(1) तुम्हें शत्रु की नहीं जरूरत, कौन तुम्हें अब समझाएगा।
आपस में बस, लड़ते रहना, अन्तर्कलह ही खा जाएगा।।
(2) माता पिता, पुत्र, पति पत्नी, भाई से भाई लड़ते हैं।
तो चुप रहो, तमाशा देखो, पके आम खुद झड़ते हैं।।
थोड़ा सा ही अन्तर देखना, कैसे इनको खा जाएगा।
आपस में बस, लड़ते रहना, अन्तर्कलह ही खा जाएगा।।
(3) धन को करूं इक_ा कैसे , ये बुद्धी तो आई है।
धन को कैसे खर्च करें, ये युक्ति सीख न पाई है।
शिक्षित, बड़ी उम्र के नर को, कौन भला समझाएगा।
आपस में बस लड़ते रहना, अन्तर्कलह ही खा जाएगा।।
(4) पढ़े लिखे , धनवानों ने, जग का सारा सुख लूट लिया।
रख न पाए बहुत दिनों तक, उनसे भी किसी ने लूट लिया।।
अमृत कलश के झगड़े में, न देगा, न पी पाएगा।
आपस में बस लड़ते रहना, अन्तर्कलह ही खा जाएगा।।
(5) चढ़ विवेक के पर्वत पर, ब्रजपाल देख हंसते रहना।
नहीं किसी की सुनना है,और नहीं किसी को कुछ कहना।।
समझाने उतरे तो फिर, तुमको ही कोई खा जाएगा।
आपस में बस लड़ते रहना, अन्तर्कलह ही खा जाएगा।
तुम्हें शत्रु की नहीं जरूरत, कौन तुम्हें अब समझाएगा।
आपस में बस लड़ते रहना, अन्तर्कलह ही खा जाएगा।।
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