आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
(1) अपने सुख की सोचो तो कितना अन्तर हो जाता है?
सब हो जाते अलग आप से, इतना अन्तर हो जाता है।।
(2) सबके लिए उठाओ दुख तो, सबको अच्छे लगते हैं।
अच्छों को तो हैं ही अच्छे, बुरों को अच्छे लगते हैं।।
दुख भी सुख लगने लगता है, कितना अन्तर हो जाता ?
सभी पराए अपने होते, इतना अन्तर हो जाता है ।।
(3) किसी को भोजन पानी दो तो, दाता को सुख मिलता है।
खाता पीता और कोई है, देने का सुख मिलता है।।
किसी को न दो, करो इक_ा, कितना अन्तर हो जाता है?
सब हो जाते अलग आप से, इतना अन्तर हो जाता है ।।
(4) सबके लिए किया है जिनने, नहीं बहुत धनवान थे वो।
सबके लिए काम जो आए, नहीं बहुत विद्वान थे वो।।
सभी याद करते हैं उनको, कितना अन्तर हो जाता है?
उनके लिए सभी रोते हैं, इतना अन्तर हो जाता।।
(5) अपने बच्चे, अपना घर, अपना धन लेकर बैठ गए।
भरे बुढ़ापे में दुख रोते, घर के बाहर बैठ गए।।
कोई नहीं सुनता फिर उनकी, कितना अन्तर हो जाता ?
उन पर दया नहीं आती है, इतना अन्तर हो जाता है।।
(6) बोलनेवालों से ज्यादा, मौनी बाबा का आदर है।
बोलो बहुत, करो न कुछ तो, पग पग मिले अनादर है।।
सुन “ब्रजपाल” सभी का सोचो, सोच का अन्तर हो जाता है।
सोचो तो, फिर खुद देखो, कितना अन्तर हो जाता।
तुमसे हर कोई मिलना चाहे, इतना अन्तर हो जाता है ।।
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