Please assign a menu to the primary menu location under menu

Sunday, September 24, 2023
धर्म कर्म

क्या आपको कोई ऐसे सन्यासी कभी मिले हैं?

क्या आपको कभी ये समझ में आ पाएगा?क्या आपको कभी ये समझ में आ पाएगा?
Visfot News

आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमदभगवद्गीता के 5 वें अध्याय के तीसरे श्लोक में सन्यासी के लक्षण बताते हुए कहा कि –
ज्ञेय: स नित्यसन्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति।
निद्र्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात् प्रमुच्यते।।5।।
ज्ञेय: स नित्यसन्यासी
ऐसा महात्मा तो नित्य ही अर्थात सदा ही सन्यासी समझना चाहिए।
कुछ मनुष्य तो संसार के सुख दुख भोगने के बाद सन्यास ग्रहण करते हैं। सन्यास विधि के अनुसार वस्त्र, बदल लेते हैं। सन्यास के नियम धारण करके उनका पालन करने लगते हैं। पहले के सभी नियमों का त्याग कर देते हैं। सन्यास ग्रहण करने के बाद आजीवन सन्यास के नियमों का पालन करते हैं।
कुछ तो गृहस्थ जीवन में जाते ही नहीं हैं और सन्यासी हो जाते हैं। किन्तु सन्यास ग्रहण करने के बाद पुन: संसार के मनुष्यों के बीच में रहकर व्यवहार करने लगते हैं। सन्यास लेने के बाद भी सन्यास के नियमों को कम पालते हुए, संसार के व्यवहार के नियमों को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं।
ये सन्यास तो क्रमिक और कुछ काल का सन्यास समझो।
भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि हे अर्जुन! जिस महात्मा में ये गुण होते हैं, वह तो उसी दिन से सन्यासी है, जिस दिन से उसमें ये गुण आ गए हैं। वस्त्र बदले हों, या न बदले हों, दण्डग्रहण किया हो या न किया हो, वन में निवास किया हो या न किया हो,, जबसे ये गुण आ गए हैं, तभी से अन्त तक वह सदा ही सन्यासी है। भले ही वह गृहस्थ में ही परिवार के बीच में ही रहता हो। मानवसमाज में रहता हो।
अब ऐसे नित्यसन्यासी के गुणलक्षण देखिए –
(1) यो न द्वेष्टि
जो द्वेष नहीं करता है। जिसके हृदय में कभी भी, कहीं भी, किसी के कहने पर भी एक भी बार अपकार करनेवाले के प्रति द्वेष भावना उत्पन्न नहीं होती है, वही सदा सन्यासी है। अपकार करने के पहले ही द्वेष रहित जैसा हृदय था, वैसा ही हृदय, अपकार करने के बाद भी बना रहे , ऐसा विशिष्ट गुणवाला महात्मा ही नित्य सन्यासी है। अर्थात जैसे छै महीने के बच्चे के हृदय में द्वेष नहीं होता है, मान अपमान का ज्ञान नहीं होता है, वैसा ही हृदय हो तो वह नित्यसन्यासी है।
(1) न काङ्क्षति
उस महात्मा के हृदय में संसार की किसी भी वस्तु की आकाङ्क्षा ही नहीं होती हो। वह किसी से कुछ भी नहीं चाहते हैं। संसार की सुन्दरता ने उनके नेत्रों को आकृष्ट न किया हो, स्वाद ने उनकी जिह्वा को आकृष्ट न किया हो, कान को मधुर शब्दों ने आकृष्ट न किया हो। अर्थात भोग और भोजन के सांसारिक आनन्द से उनकी कोई भी इन्द्रिय आकृष्ट न हो। जिनके हृदय में किसी भी वस्तु या व्यक्ति या स्थान धन आदि की कामना ही न होती हो, वह सदा ही सन्यासी है।उनको कोई इच्छा ही नहीं होती है।
(3) निद्र्वन्द्वो हि महाबाहो
भगवान ने कहा कि हे पार्थ! हे महाबाहो! वह महात्मा निद्र्वन्द्व होता है। दो को द्वन्द्व कहते हैं। जैसे सुख दुख, लाभ हानि, जीवन मरण, सुगन्ध दुर्गन्ध, अच्छा बुरा, अनुकूल प्रतिकूल आदि ये सब द्वन्द्व कहा जाता है। संसार तो द्वन्द्ववाला ही है। यहां तो एक अच्छा है तो एक बुरा है। कभी अच्छा हो जाए तो प्रसन्नता होती है और बुरा हो जाए तो दुख हो जाता है। संसार में अज्ञानी स्त्री पुरुष तो इसी द्वन्द्व में फंसे रहते हैं, इसलिए कभी सुख का अनुभव करते हैं तो कभी दुख का अनुभव करते हैं।
किन्तु हृदय से सन्यासी तो इन द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है। इसलिए जो मिल जाए सो वही अनुकूल है। कुछ भी प्रतिकूल नहीं है। यही महात्मा नित्य अर्थात सदा ही सन्यासी है। अब जब द्वन्द ही नहीं है तो उनके हृदय की प्रसन्नता स्थायी है। सदा ही प्रसन्नमुद्रा में रहते हैं। कुछ इच्छा ही नहीं होती है तो द्वेषभाव भी नहीं होता है।
(4) सुखम्
ऐसे महात्मा ही सदा सुख का अनुभव करते हैं। दुख का कारण ही समाप्त हो गया है तो दुख होता ही नहीं है।
इस संसार में दुख का कारण तो इच्छा थी। अब सुख ही नहीं चाहिए तो सुख देनेवालीं वस्तुओं का संग्रह ही किसलिए करना है? यदि वस्तुएं हैं भी तो उनका स्पर्श ही नहीं करना है तो दुख ही नहीं है। वस्तुएं बनीं रहें या नष्ट हो जाएं, मतलब ही नहीं है। उनके नाश का भी दुख नहीं होता है। निद्र्वन्द्व हो गए हैं।
हे अर्जुन! हृदय में इन गुणों को धारण करने का फल सुनो –
बन्धात् प्रमुच्यते
ऐसे महात्मा ही जीते जी सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो जाते हैं। बन्धन तो सुख का है, बन्धन तो लाभ का है, बन्धन तो इच्छा का है, बन्धन तो आकाङ्क्षा का है।
अब कुछ चाहिए ही नहीं है तो अब न तो किसी व्यक्ति का बन्धन है, न ही किसी स्थान का बन्धन है, न ही समय का बन्धन है। इस वृत्ति में ही सदा सुख है। ऐसा महात्मा ही नित्य अर्थात सदा ही सन्यासी है। यही जीवन्मुक्त महात्मा है। ऐसे महापुरुष ही भगवान के भक्त हैं, ज्ञानी हैं तथा भगवान के स्वरूप हैं। घर बैठे तो दुख देनेवाले ही मिलते हैं। सदा सुख देनेवाले को ढूंढऩा पड़ता है। जो आपको सदा के लिए सुखी कर सकते हैं, उनको आपसे कोई लेना देना नहीं है, और जिनको आपसे कुछ लेना देना है, वही आपको सदा ही दुख देनेवाले हैं।

RAM KUMAR KUSHWAHA
भाषा चुने »