आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
श्रीमद् भागवत के 6 वें स्कन्ध के 15 वें अध्याय के 7 वें श्लोक में शरीर की उत्पत्ति बताते हुए नारद जी ने चित्रकेतु से कहा कि –
देहेन देहिनो राजन् देहाद्देहोह्य भिजायते।
बीजादेव यथा बीजं देहार्थ इव शास्वत:।।
नारद जी ने कहा कि हे महाराज चित्रकेतु! जिस शरीर पर तथा शरीर के सम्बन्धी पति, पत्नी भाई पुत्र आदि के शरीर पर अटूट मोह ममता हो रही है, सबसे पहले उस शरीर के विषय में विचार करना चाहिए।
देहेन देहिनो राजन् देहाद् देहो ह्यभिजायते
सभी देहधारियों के देह, दो देहों के मिलने से ही उत्पन्न होते हैं। मनुष्य और देवता के अतिरिक्त और किसी योनि के जीव इस शरीर के विषय में विचार नहीं कर सकते हैं। आपके शरीर के और पत्नी के शरीर के मिलने से एक शरीर ही उत्पन्न हुआ है। स्वयं आपने ही किया है और देखा भी है। बालक का शरीर भी आपकी आकृति से मिलता है। जो आपके शरीर में क्रियाएं होतीं हैं, तथा जो हो रहीं हैं और जो क्रियाएं आगे होंगीं, ठीक वही क्रियाएं आपके पुत्र के शरीर में हो रही हैं, और आगे भी होंगीं।
आपका शरीर भी एक न एक दिन अवश्य ही नष्ट होनेवाला है। इसलिए आपके पुत्र का शरीर भी नष्ट होना था। बस, अन्तर तो समय का पड़ रहा है। पुत्र का शरीर आपके पहले नष्ट हो गया है। शरीर तो शरीर जैसा ही रहेगा। किसी का भी शरीर न रहा है और न ही रहता है। यह सबकुछ देखने के बाद भी माया मोह के कारण ऐसा लगता है कि न मैं कभी मरुं और न ही मेरे सम्बन्धी कभी मरें। तथा न ही कभी कोई अस्वस्थ हो। न कभी कोई दुखी हो। किन्तु यह कामना इच्छा न कभी किसी की पूर्ण हुई है और न ही होती है तथा न ही कभी पूर्ण होगी।
अब दृष्टान्त से समझिए –
बीजादेव यथा बीजं देहार्थ इव शाश्वत: –
यहां शरीरधारियों का जितना भी भोजन है, वह सब बीज से ही उत्पन्न होता है। बीज से बीज ही उत्पन्न होता है। गेहूं चना आदि वनस्पति जो भी पृथिवी में दिखाई दे रहा है, वह सब तो बीज से बीज ही उत्पन्न कर रहा है, तथा ऐसा ही उत्पन्न होता आया है और आगे भी शाश्वत अर्थात अनादि काल तक ऐसा ही उत्पन्न होता रहेगा।
वास्तव में यह सारा संसार बीजरुप में ही है। इसी प्रकार शरीर से शरीर ही उत्पन्न हुआ है। जिस शरीर से आपका शरीर उत्पन्न होता है, उस शरीर के गुण धर्म भी दूसरे शरीर में आते हैं।
जब स्त्री पुरुष का शरीर सदैव एक जैसा स्वस्थ, बलवान तथा कान्तिमान नहीं रहता है तो उससे उत्पन्न शरीर भी सदा ही स्वस्थ, बलवान और कान्तिमान कैसे रहेगा? अर्थात जैसा बीज था, वैसा ही दूसरा बीज भी होता है।
इतना सब बार बार देखते हुए भी, स्वयं करते हुए भी समझने के लिए समर्थ गुरु की आवश्यकता पड़ती है। जो सद्गुरु वेदों शास्त्रों के मर्मज्ञ होते हैं, तथा निद्र्वन्द्व, निर्मोही , ब्रह्मनिष्ठ होते हैं, वे ही इस सृष्टि के प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली प्रकृति के रहस्य को जानते हैं और समझाने में समर्थ होते हैं।
इस संसार में कुछ महात्मा ही इस रहस्य को जानते हुए भगवान के भजन को करते हैं। उनकी शरण में रहकर ही उनकी सेवा करके तथा उनके दिए गए ज्ञान को समझकर ही तथा भगवान के स्वरूप को जाना जा सकता है। इसी को ज्ञान सहित भक्ति कहते हैं।
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आंखों से देखते हुए भी और स्वयं करते हुए भी समझ में नहीं आ रहा है
RAM KUMAR KUSHWAHAJune 21, 2021
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