आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
श्रीमदभगवद्गीता के 7 वें अध्याय के 27 वें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा कि –
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।
भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि हे परन्तप! इस सृष्टि में सभी जीवों में इच्छा और द्वेष प्रकृति के ये दो गुण रहते हैं। इन दोनों गुणों से उत्पन्न सुख दुख, हानि लाभ आदि द्वन्द का मोह उत्पन्न होता है। प्रकृति के इन दोनों गुणों के कारण ही सभी जीवों में सम्मोहन उत्पन्न होता है। इस सम्मोहन के कारण ही सभी जीवों में दुख ही दुख बना रहता है। सभी एक दूसरे को दुखी करते रहते हैं।
भगवान के इस अध्यात्म विज्ञान को भी समझने का प्रयत्न करिए –
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत –
संसार में जो भी शरीरधारी जीव उत्पन्न होता है, वह गर्भ से ही इन दो गुणों को लेकर ही उत्पन्न होता है।
(1) इच्छा
प्रत्येक जीव अपने शरीर के पालन पोषण में सतर्क होता है। जन्म होने के बाद जैसे ही शरीर में वृद्धि होने लगती है, बस, सबसे पहले उसको अच्छा स्वादिष्ट भोजन करने की इच्छा जागृत होती है। जिस योनि का जो भोजन होता है, वह उसी की ओर सबसे पहले आकृष्ट होता है।
भूख के कारण तो कुछ भी खा लेता है, वो बात अलग है। किन्तु अच्छा और स्वादिष्ट भोजन की ही इच्छा होती है। स्वादिष्ट भोजन की इच्छा जागृत होते ही अपनी जाति के जीवों से द्वेष भाव भी उत्पन्न होता है। उसकी इच्छा इतनी प्रबल होती है कि मैं ही इसको खा जाऊं, और कोई इसको न खा पाए। इसलिए दूसरों से द्वेष उत्पन्न होता है। द्वेष उत्पन्न होते ही क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध ही युद्ध का कारण है। पहले तो भोजन के लिए इच्छा और द्वेष उत्पन्न होते हैं। भोजन के लिए ही युद्ध होता है। अब शरीर जब युवावस्था में प्रवेश करता है तो स्त्री जाति के जीवों में पुरुष संगम की इच्छा जागृत होती है ,और पुरुषजाति को स्त्रीसंगम की इच्छा जागृत होती है। अब इस भोगेच्छा में भी यही इच्छा होती है कि मैं ही भोगूं, और कोई नहीं। बस, ऐसी ही एक ही प्रकार की इच्छा सभी युवावस्था के जीवों में उत्पन्न होते ही विघ्ननिवारण के लिए क्रोध उत्पन्न होता है। बस, इस क्रोध के कारण ही युद्ध होता है।
इच्छा और द्वेष की यही प्रकृति मनुष्यों में भी होती है। भोग और भोजन की इच्छा जागृत होते ही द्वेष उत्पन्न होता है तो शारीरिक बल का का उपयोग करते हैं। बौद्धिक बल का उपयोग करते हैं। इसी को द्वन्द्वमोह कहते हैं। दो के मोह को द्वन्द्वमोह कहते हैं। यह इच्छा और द्वेष का प्राकृतिक द्वन्द देवताओं, असुरों, मनुष्यों से लेकर सभी जीवों में होता है। इसलिए भोग और भोजन के लिए सभी जीवों में युद्ध होता रहता है। यही संसार है और यही सभी जीवों के दुखों का कारण है। यही प्रकृति का खेल है।
अब आगे देखिए –
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप –
हे अर्जुन! जो उत्पन्न होता है, उसे भूत कहते हैं। इसलिए शरीर को भूत कहा जाता है। पृथिवी,जल,अग्नि,वायु और आकाश को भूत कहा जाता है। क्योंकि ये उत्पन्न होते हैं। इन पांचों भूतों को पंचमहाभूत कहते हैं। पंचमहाभूतों से बने हुए शरीर को भूत कहते हैं। शरीर के साथ जीवात्मा का सम्बन्ध रहता है, इसलिए जीव को भी भूत अर्थात उत्पन्न होनेवाला कहकर भूत ही कहा जाता है। इसलिए भगवान ने सर्वभूतानि शब्द का उपयोग करके सभी लोकों के सभी जीवों को कह दिया है। अनन्त शरीरों की गणना करना असम्भव है।
भगवान ने कहा कि हे पार्थ! प्रकृति के इस रहस्य को मात्र देवता, मनुष्य, गन्धर्व आदि ही समझ सकते हैं। अन्य जीवों के तो न ऐसी वाणी है और न ही ऐसी बुद्धि है। पशु पक्षी आदि जीवों की वाणी तो मात्र भोग और भोजन तथा भय आदि के संकेत मात्र बताने के लिए है। उनकी वाणी का ज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं होता है। मनुष्य, देवता आदि की बुद्धि और वाणी का उपयोग ज्ञान के लिए भी होता है। जिसको ज्ञान से कोई लेना देना नहीं रहता है, उसकी वाणी तो पशु पक्षी आदि के समान मात्र भोग भोजन के संकेतों के लिए ही प्रयुक्त होती है।
सर्गे यान्ति परन्तप
हे परन्तप! यही इच्छा और द्वेष के सम्मोहन के कारण मनुष्य देवता आदि भी सृष्टि में बार बार यही करते रहते हैं। जिस स्त्री पुरुष ने शास्त्रों के मत को मानकर इच्छा को अवरुद्ध कर लिया है, उनको द्वेष आदि प्राकृतिक गुणों से उत्पन्न होनेवाले दुख प्राप्त नहीं होते हैं। यदि प्रकृति के इस रहस्य का ज्ञान नहीं होता है तो युद्ध, उद्वेग, दुख, जन्म मरण आदि की परम्परा नष्ट नहीं होती है। अज्ञानी स्त्री पुरुषों का दुख न तो कभी दूर होता है,और न ही कोई इनके दुखों को दूर कर सकता है। विद्वान महापुरुष के सत्संग से तथा शास्त्रों के स्वाध्याय से संसार के यथार्थ स्वरूप का रहस्यज्ञान होने पर ही ज्ञान भक्ति और वैराग्य जागृत होते हैं। तब संसार के दुखों से मुक्त होते हैं।
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क्या आपको कभी ये समझ में आ पाएगा?
RAM KUMAR KUSHWAHAAugust 21, 2021
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