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Sunday, September 24, 2023
धर्म कर्म

इतना ही समझ जाते तो इतने दुखी न होते

इतना ही समझ जाते तो इतने दुखी न होते

जानिए गुरुमंत्र एक आसन पर बैठकर और चलते फिरते करने का क्या महत्व हैजानिए गुरुमंत्र एक आसन पर बैठकर और चलते फिरते करने का क्या महत्व है
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आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
श्रीमद्भगवद्गीता के 5 वें अध्याय के 22 वें श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने भूत भविष्य वर्तमान के तीनों कालों के दुख का कारण तथा प्रत्यक्षज्ञान का महत्त्व बताते हुए अर्जुन से कहा कि –
ये हि संस्पर्शजा: भोगा: दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:।।
भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि हे कौन्तेय! कुन्तिपुत्र! शरीर के सुख तो पांच प्रकार के ही हैं। आंख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा इन पांचों इन्द्रियों का जब संसार की किसी वस्तु से, व्यक्ति से या स्थान से संयोग होता है तो उसे भोग शब्द से कहा जाता है। जब भी कोई स्त्री पुरुष इन वस्तुओं का भोग करते हैं तो जितना क्षणिक सुख मिलता है, उससे हजारों गुना तो दुख मिलता है। जिस सुख का आदि होता है, तो उसका अन्त भी होता है। इसलिए बुध अर्थात ज्ञानी महापुरुष इस सांसारिक दुखरूप सुख के रहस्य को जानकर इनमें रमण नहीं करते हैं। इस सुख को त्याग करके सदा के लिए सभी प्रकार के दुखों से रहित हो जाते हैं।
ये हि संस्पर्शजा: भोगा :
संसार में जितने भी शरीरधारी जीव हैं, वे सभी जीव जब तक संसार के किसी पदार्थ का स्पर्श नहीं करेंगे, तब तक उस पदार्थ का न तो कोई सुख मिलता है और न ही उससे कोई दुख मिलता है, यही सबसे बड़ी स्वतन्त्रता है।
(1) नेत्र
कोई भी वस्तु कितनी भी सुन्दर और आकर्षक हो, किन्तु उस वस्तु में इतनी शक्ति नहीं है कि आपको देखने के लिए मजबूर करे। देखनेवाला ही स्वतन्त्र होता है। देखना है तो देखे और न देखना हो तो न देखे। मनुष्य ही स्वतन्त्र है, वस्तु तो जड़ है, पराधीन है। मनुष्य यदि किसी वस्तु का उपयोग करता है तो मनुष्य को ही दुख सुख का अनुभव होता है, किसी वस्तु को सुख दुख का अनुभव नहीं होता है। इसलिए हे अर्जुन! इस रहस्य को समझो कि संसार की कोई भी वस्तु तुम्हारी स्वामी नहीं बन सकती है। तुम संसार के प्रत्येक वस्तु के स्वामी हो। नेत्रों का वस्तुओं से संयोग होता है। जो स्त्री पुरुष आगे मिलनेवाले इस प्रत्यक्ष दुख को नहीं समझते हैं, वे मृत्यु पर्यंत इन वस्तुओं से दुख ही दुख भोगते रहते हैं। हजार बार देखने के बाद भी बार बार देखने के लिए आतुर रहते हैं। तृप्त नहीं हो सकते हैं।
(2) जिह्वा
स्वादिष्ट भोजन अपने आप किसी के मुख में नहीं जाता है । स्वादलोभी अज्ञानी स्त्री पुरुष ही स्वादिष्ट भोजन को मुख में डालकर क्षणिक सुख लेकर बार बार उस भोजन के लिए प्रयास करते हैं। भोजन खानेवाले को नहीं ढूंढ़ता है ।भोजन तो जड़ है, भोजन करनेवाला ही स्वतन्त्र होता है। स्वादिष्ट भोजन से होनेवाले दुख को रोग को खानेवाला ही भोगता है।
(3) नासिका।
अनेक स्त्री पुरुष सुगन्धित पुष्पों के, सुगन्धित तेल के रागी होते हैं। वे भी रात दिन उस सुगन्धित द्रव्यों का प्रयोग करके अंत में दुखी ही होते हैं। संसार में कोई भी वस्तु न तो सर्वत्र मिलती है और न ही सदा मिलती है। बस, न मिलने पर दुख है, मिल गई तो उपयोग के बाद होनेवाले रोग से दुख है। परिणाम तो दुख ही है।
(4) कान
मधुर संगीत कानों से श्रवण करके क्षणिक सुख का अनुभव होता है। बार बार मधुर श्रवण करके भी अतृप्त रहते हैं। श्रवण की वासना के कारण सुनने के लिए रात दिन व्याकुल रहता है। कुछ समय बाद सुनने की शक्ति समाप्त हो जाती है तो दुख के अतिरिक्त कुछ भी नहीं मिलता है। अन्त में दुख ही दुख भोगते हैं।
(5) त्वचा
शरीर में जो चमड़ी है, उसे त्वचा कहते हैं। कोमल स्पर्श का सुख मिलता है। ठंडी में गर्म का सुख मिलता है।गर्मी में ठंडी का सुख मिलता है। किन्तु यह सुख भी सदा और सर्वत्र नहीं मिलता है। जैसे कि आजकल हीटर, कूलर, ए.सी. आदि सब स्पर्श सुख को देते हैं । सबके लिए धन चाहिए । अर्थात शरीर के सभी प्रकार के सुखों को लेने के लिए बहुत परिश्रम चाहिए। सुख मिलने के बाद रोग होंगे। न मिलने पर दुख होगा इत्यादि आदि अन्त में दुख ही दुख हैं।
आद्यन्तवन्त:
भगवान ने कहा कि हे अर्जुन! सबसे बड़ी बात तो यह है कि यहां के सुख आदि अन्तवाले हैं। या तो वस्तु समाप्त हो जाती है, या फिर शरीर की ग्रहण करने की शक्ति ही समाप्त हो जाती है। इसलिए हे अर्जुन! जिनको भी इस संसार के सुखों से होनेवाला दुख दिखाई देता है, वह इन सुखों को त्याग करके सदा के लिए इनसे मुक्त हो जाता है। जिसे संसार के सुख नहीं चाहिए, उसे कोई भी कहीं भी, और कभी भी दुख नहीं होता है। जैसे कीचड़ से भरे तालाब के थोड़े से पानी को देखकर कोई भी पीना नहीं चाहता है, उसी प्रकार शारीरिक अल्पसुखों का लोभ छोड़कर बुद्धिमान स्त्री पुरुष इन्द्रियों को ही रोक लेते हैं, भोगते नहीं हैं। इसी दृष्टि को ज्ञानदृष्टि कहते हैं।

RAM KUMAR KUSHWAHA
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