आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
तू कैसा इंसान है, तूने अपना ही घर मिटा लिया।
बने बनाए इस जीवन को धूल में तूने मिला दिया।
तू कैसा इंसान है भाई?
(1) पाला पोषा बड़ा किया जिनने, उनको दुख देता है।
काम नहीं आएंगे जो, उनको जाकर सुख देता है।
लिखा था जीवन भर का सुख आकर तूने दुख लिखा दिया।
तू कैसा इंसान है तूने अपना ही घर मिटा लिया।
(2) पत्नी, पुत्र भाई, माता सब, तुझे देखकर रोते हैं।
सुबह से लेकर शाम तलक मुख आंसुओं से ही धोते हैं।।
तूने सबको दुखी किया अपनों को पराया बना लिया।
तू कैसा इंसान है तूने, अपना ही घर मिटा लिया।।
(3) कोई नहीं विश्वास कर रहा, ऐसा क्या कुछ कर डाला।
अपने मन बुद्धि में तूने कितना कचरा भर डाला।।
मित्र बनाना था सबको, पर सबको दुश्मन बना लिया।
तू कैसा इंसान है तूने अपना ही घर मिटा लिया।।
(4) घर में तेरी रोज लड़ाई, बाहर इज्ज़त कैसे हो।
बाहर के बस, इतना पूंछें, और भाई तुम कैसे हो।
घुटते रहो, रहोगे घुटते ऐसा ही कुछ बना लिया।
तू कैसा इंसान है तूने अपना ही घर मिटा लिया।
(5) थोड़े दिन में आए बुढ़ापा, रे “ब्रजपाल ” तू रोएगा।
सुख और शान्ति कहां से पाए, जब तू दुख ही बोएगा।।
फिर खुद मुख से बोलेगा, मैनें सब अपना मिटा लिया।
अगले जन्म के लिए भी अपनी किस्मत में दुख लिखा लिया।।
तू कैसा इंसान है तूने अपना ही घर मिटा लिया।
बने बनाए इस जीवन को धूल में तूने मिला दिया।।
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the authorRAM KUMAR KUSHWAHA
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