आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
रामचरित मानस के अयोध्या काण्ड के 47 वें दोहे की पहली, दूसरी और तीसरी चौपाई में अयोध्या के लोगों के कैकेयी के लिए कहे गए वचनों को उद्धृत करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि –
चौपाई – मिलेहि माझ बिधि बात बिगारी।
जहँ तहँ देहिं कैकइहि गारी।।1।।
सबके प्रिय सबके हितकारी श्री राम जी के वनवास को सुनते ही अयोध्यावासी नर नारियों में दुखभरी चर्चा चलने लगी। आपस में कहने लगे कि –
मिलेहि माझ बिधि बात बिगारी –
सबकुछ अच्छा हो रहा था, श्री राम जी का राज्याभिषेक होने ही वाला था, किन्तु बिधाता ने माझ में अर्थात बीच में ही सारा काम बिगाड़ दिया।
जहँ तहँ देहिं कैकइहि गारी
कुछ लोग तो कैकेयी को ही गाली दे रहे थे।
राजा हो या कोई गरीब हो, अच्छे कार्य में विघ्न करनेवाले को सारा समाज गाली देता है। जबतक एक व्यक्ति भी जीवित रहेगा, तबतक उसकी चर्चा चलती ही रहेगी। यदि बड़े व्यक्ति हैं, तो तो फिर इतिहास में ही गाली देते रहेंगे। हजारों लाखों वर्षों तक लोग गाली देते रहेंगे।
अब गाली ही सुन लीजिए –
एहि पापिनिहि बूझि का परेऊ।
छाइ भवन पर पावक धरेऊ।।
लोगों ने कहना प्रारम्भ कर दिया कि देखो तो इस पापिनी कैकेयी को ! पता नहीं इसको ऐसा क्या सूझा कि –
छाइ भवन पर पावक धरेऊ
चौमासे के आंधी पानी से बचने के लिए छबे छबाए तैयार, सुधरे सुधराए घर में कैकेयी ने अग्नि रखकर सबकुछ भस्म कर दिया। सारा परिश्रम व्यर्थ कर दिया। अब आंधी पानी आ गया है, अब कहां शिर छिपाएगी इतनी भी बुद्धि नहीं लगाई। समझ रहे हैं न आप लोग कैकेयी जैसे लोगों की समाज में कमी नहीं है। ऐसे स्त्री पुरुषों को समाज सदा ही गाली देते रहते हैं, जो स्त्री पुरुष अच्छे कार्यों में विघ्न डालकर अपने आप को बहुत बुद्धिमान और बहुत बुद्धिमती समझते हैं।
अब थोड़ी निर्बुद्धिपने का उदाहरण देख लीजिए –
चौपाई – निज कर नयन काढि़ चह दीखा।
डारि सुधा बिषु चाहत चीखा।।
कुछ लोग बोले कि इस कैकेयी का निर्बुद्धिपना तो देखो कि श्री राम जी को वनवास भेजकर असम्भव सुख की ऐसे कल्पना कर रही है कि।
निज कर नयन काढि़ चह दीखा
जैसे कोई अपनी आंखों को देखने के लिए अपने हाथों में आंखें निकाल कर अपनी आंखों से ही देखना चाहता हो कि देखूं तो सही कि मेरी आंखें कितनी सुन्दर हैं। जब आंखे ही निकल जाएंगीं तो भला किन आंखों से हाथ में रखीं हुईं आंखों को देखेंगे जैसे ये कार्य असम्भव है, उसी प्रकार श्री रामचंद्र जी को वनवास भेजकर कैकेयी का सुखी होना असम्भव है।
निर्बुद्धिपने का दूसरा उदाहरण देखिए –
डारि सुधा बिषु चाहत चीखा
अमृत को फेंककर विषपान करके कैकेयी अमर होना चाहती है। विष पीकर जैसे अमर होना असम्भव है, उसी प्रकार कौशल्यानन्दन को वनवास भेजकर कैकेयी का सुखी होना असम्भव है। आजकल के सभी वर्गों के समाज में ऐसे रिश्तेदार होते हैं, कुछ तो कुल परिवार में भी ऐसे लोग रहते हैं कि उन्हें अच्छे अवसरों में शादी व्याह आदि में ही रूठना आता है।
वर्षों तक अच्छे सम्बन्ध बनाए रखेंगे, बस, जैसे ही परिवार में या रिश्तेदारी में कुछ अच्छा काम होते देखेंगे कि इनकी जहां आवश्यकता पड़ेगी, वहीं मान सम्मान को लेकर ऐसा अडंगा डालेंगे कि सारे परिवार के लोग उनके पैरों के नीचे पड़े मिलेंगे। मान भी जाएंगे, लेकिन ऐसे लोग तो सबके हृदय से निकल जाते हैं। इनके मरने के बाद भी लोग इनकी मूर्खता के दुर्गुणगान गाते रहते हैं। ऐसे लोगों का सहयोग तो बिल्कुल ही नहीं होता है। न तो पैसे का और न ही सेवा सहयोग का सहयोग रहता है।
ऐसे लोग प्राय: वही होते हैं, जिनको अच्छा मनुष्य मानकर, ऊंचा कुल मानकर अपनी कन्या दी जाती है। ऐसे लोग ही सबसे अधिक नीचता करते हैं। मान जाइए भैया! आप यदि कैकेयी जैसे विघ्नकर्ता हैं तो आपको गाली ही मिलेगी, यश और सम्मान आदर नहीं मिलेगा। आप भले ही फूले फूले फिरते रहिए। किन्तु दुख और अपयश, अपमान देनेवाले को कोई भी प्रेम नहीं देता है, भले सम्बन्ध चलता रहे। धिक्कार है ऐसे रिश्तेदारों को तथा परिवार के ऐसे भाई, भतीजे, चाचा, ताऊ आदि को, जो अच्छे कार्यों के अवसर में दूसरों के मन को दुखी करके अपने आप को बड़ा दिखाना चाहते हैं।
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