आचार्य ब्रजपाल शुक्ल, वृंदावन धाम
भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद्भगवद्गीता के 13 वें अध्याय के 29 वें श्लोक में अर्जुन को इस संसार का रहस्य बताते हुए कहा कि –
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश:।
य: पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति।
भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि हे पार्थ! इस संसार में शरीरधारियों की दस इन्द्रियों से जितने भी प्रकार के कर्म होते हैं, वे सभी प्रकार के कर्म प्रकृति से ही हो रहे हैं, और होते रहेंगे , इस प्रकार से जो भी एकबार देख लेता है, उसको अपने आत्मा में अकर्तापन ही दिखाई देता है। यही इस संसार का रहस्य है । जब भी किसी को प्रकृति का यथार्थ देखने की शक्ति प्राप्त होगी तो उसे यही दिखाई देगा कि यहां उत्पत्ति भी प्रकृति से ही हो रही है, और पालन भी प्रकृति से ही हो रहा है तथा नाश भी प्रकृति का ही हो रहा है। आत्मा तो अकर्ता ही है। वह आत्मा न तो किसी को उत्पन्न कर रहा है, और न ही आत्मा को कोई उत्पन्न कर रहा है। आत्मा तो इस संसार में होनेवाली किसी भी क्रिया को कर ही नहीं रहा है। यही तो आत्मा का अकर्तापन है। ऐसा यथार्थ जो देखता है, वास्तव में वही वास्तविकता को देख रहा है। शेष मूढ़ मनुष्य तो इस बात तक को नहीं समझ पाते हैं।
आइए! अब थोड़ा विचार किया जाए!
प्रकृत्यैव च कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश:
इस श्लोक के प्रत्येक पद में विचार करने योग्य है।
प्रकृत्या = प्रकृति के द्वारा , एव – ही, इन दोनों पदों में जो प्रकृत्या पद के साथ एव अर्थात ही पद है, उसका तात्पर्य यह है कि यहां जो भी हो रहा है, वह प्रकृति के द्वारा ही हो रहा है। एव अर्थात ही । ही का तात्पर्य यह है कि प्रकृति ही सबकुछ कर रही है और प्रकृति में ही सबकुछ हो रहा है। जैसे कि आप जो भी कर रहे हैं, पृथिवी में ही कर रहे हैं। भोजन पानी, मल मूत्र, देखना, सुनना, उठना बैठना, उत्पन्न करना, नाश करना ,श्वास लेना, श्वास छोडऩा आदि जो भी क्रिया कर्म कर रहे हैं, वो सब पृथिवी में ही रहकर कर रहे हैं।
अब देखिए –
कर्माणि क्रियमाणानि सर्वश:
क्रियमाण अर्थात वर्तमानकाल में अभी अभी जो भी आप देखना, सुनना, मैथुन करना, रोना धोना, पकडऩा, छोडऩा, आना जाना, आदि अपने शरीर से जो भी कुछ कर रहे हैं, सर्वश: अर्थात सम्पूर्ण क्रियाएं प्रकृति से ही हो रही हैं। प्रकृति में ही हो रही हैं।
इतनी बात समझ में आ रही है कि नहीं? अभी और थोड़ी विचार करते हैं।
आप जो भी सब्जी, दाल, फल, फूल, पशु पक्षी, पत्थर, लोहा, पैट्रोल, गाड़ी आदि का उपयोग कर रहे हैं, वो सब तो प्रकृति ही है। भोजन और जल से मल बनता है, मूत्र बनता है, रक्त, मांस ,मज्जा, वीर्य आदि सब तो प्रकृति ही है। बीज से बीज ही उत्पन्न होता है, इसी प्रकार आपका शरीर भी शरीर से ही उत्पन्न होता है। शरीर भी प्रकृति ही चलाती है।
अब श्लोक का आगे का आधा भाग देखिए –
य: पश्यति तथात्मानमकर्तारं स पश्यति
जो भी व्यक्ति इस प्रकार से आत्मा को अर्थात आत्मा जैसा अकर्ता है, वैसा ही देखता है, तो समझिए कि “स पश्यति” वह सही देख रहा है। जो व्यक्ति प्रकृति में रहते हुए भी, प्रकृति की क्रियाएं देखते हुए भी, प्रकृति का उपयोग करते हुए भी, अपने शरीर के प्राकृतिक परिवर्तन को देखते हुए भी नहीं समझ पाते हैं, वे तो सही में नहीं देख रहे हैं। वे अंधे ही हैं। धन, परिवार, शरीर को देखकर ऐसा अहंकार होता है कि मैं कर रहा हूं, ये सब मेरा है, मैं कुछ भी कर सकता हूं, यदि ऐसा लग रहा है, ऐसा ही समझ रहे हैं तो समझिए कि आपको दिखाई नहीं दे रहा है। क्योंकि आपके शरीर में जब प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता है और कफ पित्त वात कुपित होते हैं तो आपका शरीर शिथिल होता चला जाता है। शरीर दुर्बल शक्तिहीन होता है, कुछ खा पी नहीं पाते हैं तो आप क्या कर सकते हैं? कुछ भी नहीं कर सकते हैं। इसलिए भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन! ये सब प्रकृति का कार्य है। वही करती है, वही करती रहेगी। आपको सत्य ही प्रिय है तो जैसा सत्य है, वैसा ही देखिए। पृथिवी की वस्तुओं को धन कहते हैं। जबकि धन नाम की अलग से कोई वस्तु नहीं होती है। आपका भ्रम ही अज्ञान है। अज्ञान अंधेरा है। अंधेरे में कुछ भी करते हैं तो वह गलत ही होता है। क्योंकि अंधेरे में कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। वृद्धावस्था आने पर भी अहंकार बना रहता है। मृत्यु की ओर जाते हैं, तो भी समझ में नहीं आ रहा है कि ये सब प्रकृति से ही हो रहा है। इसलिए शास्त्रों की विधि से, सद्गुरु की युक्ति से ही सत्य जाना जा सकता है। अपने आप तो आपके मन में ऐसे विचार कभी नहीं आते हैं कि प्रकृति और विकृति क्या है? ये सब व्यर्थ होते हुए भी सार्थक कैसे है? मैं जो कह रहा हूं, या कर रहा हूं, ये सब कैसे हो रहा है? ये विचार जिस दिन आने लगेंगे, उसी क्षण से गीता की बात, भगवान की बात समझ में आने लगेगी।